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कर्तृकर्माधिकार पुद्गलपरिणामज्ञानपुद्गलयोघंटकुंभकारवव्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मस्त्रासिद्धावात्मपरिगामात्मनोघट मृत्तिकयोरिव व्याप्चव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण की स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोत्यंतविविक्तज्ञानोभूतो ज्ञानी स्यात् । न चैवं ज्ञातुः पुद्गलपरिणामो ब्यायः पुद्गलात्मनो यज्ञायकसंबंधव्यवहातथा, एव, परिणाम, न, एतत्, आत्मन्, यत्, तत्, ज्ञानिन् । मूलधातु--डुकृञ करणे, ज्ञा अवबोधने ऋ यादि, भू सत्तायां । पदविवरण --कर्मणः-पष्टी एकवचन । च-अव्यय । परिणाम-द्वितीया एका० । नोकर्मणः-पष्ठी एक । च-अव्यय । तथा-अव्यय । एव-अव्यय । परिणाम-द्वितीया एक० । न-अव्यय । रूप हुमा ज्ञानी ही है, कर्ता नहीं है । ऐसा होनेपर वाही ज्ञाता पुरुषके पुद्गलपरिणाम व्याप्यस्वरूप नहीं हैं क्योंकि पद्गल और आत्माका ज्ञेयज्ञायक संबंध व्यवहारमात्रसे होता हुग्रा भी पुद्गलपरिणाम निमित्तक ज्ञान हो ज्ञाताके व्याप्य है । इसलिये वह ज्ञान हो ज्ञाताका कर्म है।
अब इसी अर्थके समर्थनका कलशरूप काव्य कहते हैं- व्याय्य इत्यादि । अर्थ-व्याप्य व्यापकता तत्स्वरूपके ही होती है प्रतत्स्वरूप में नहीं ही होती और व्याप्य व्यापकभावके संभव बिना कर्ताकर्मको स्थिति कुछ भी नहीं है ऐसे उदार कला और परतलो मामी भूत करनेका स्वभाव जिसका है ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रकाशके भारसे अज्ञानरूप अंधकारको भेदता हुआ यह प्रात्मा ज्ञानी होकर उस समय कर्तृत्वसे रहित हुआ भासता है । भावार्थ-जो सब अवस्थानों में व्याप्त हो वह तो व्यापक है और जो अवस्थाके विशेष हैं वे व्याप्य हैं । सो द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है। सो द्रव्य पर्याय अभेदरूप ही हैं 1 जो द्रव्यका प्रात्मा है बही पर्यायका आत्मा है, ऐसा व्यापव्यापक भाव तत्स्वरूपमें ही होता है, अतत्स्वरूप में नहीं होता । तथा व्याप्यव्यापक भावके बिना कर्ता-कर्मभाव नहीं होता। इस प्रकार जो जानता है वह पुद्गलके और आत्माके कर्ता-कर्मभावको नहीं करता, तभी ज्ञानी होता है और कर्ता कर्मभावसे रहित होकर ज्ञाता द्रष्टा जगतका साक्षीभूत होता है।
प्रसंगबिवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि ज्ञान होने और प्रास्त्रवानिवृत्ति होनेका काल एक कैसे है ? अब उसी विषयमें जिज्ञासा हो रही है कि प्रात्मा ज्ञानी हो गया यह कैसे पहिचाना जाये ? उसीके समाधान में इस गाथाका अवतार हुअा है ।
तथ्यप्रकाश-१-- कर्ममें जो मोह राग द्वेष आदि प्रकृति व अनुभागका बंध हुआ था वह परिमन कर्मका उपादानदृष्टि से है । २- शरीरमें मोटा पतला रूप प्राकार प्रादिक जो परिणमन है वह परिणमन शरीरका उपादान दृष्टि से है । ३- पद्गलका परिणमन (मोहादि) पुद्गलमें ही व्याप्य हैं अतः पुद्गलपरिणाम (मोहादि) का कर्ता पुद्गलद्रव्य ही है निश्चयतः, प्रात्मा कर्ता नहीं । ४-मोहादिक अनुभाग पुद्गलकर्मके. द्वारा हो व्याप्य होता है अतः मोहा