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________________ १६. समयसार रमात्र सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुर्याप्यत्वात् । व्याप्यव्यापकता तदास्मनि भवेन्नवातदात्मन्यपि, व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहो भारेण भिदस्तभो, शानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४६।। ।।७५॥ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एनं-द्वितीया एक० । आत्मा-प्रथमा एक० । यः-प्रथमा एक०। जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । झानी-प्रथमा एकवचन ॥५॥ दिक परिणाम पुद्गलकर्मका कार्य है, प्रात्माका कार्य नहीं । ५-पुद्गल परिणाम (मोहादिक) प्रात्मामें प्रतिफलित होते हैं, ज्ञेय होते हैं, इस कारण मोहादिक परिणामका प्रात्माके साथ ज्ञेय ज्ञायक संबंधका व्यवहार है । ६-पुद्गलपरिणामके शेय होनेपर प्रारमाका कर्म पुद्गल परिणामविषयक ज्ञान है और प्रारमा इस ज्ञानका कर्ता है, क्योंकि तब प्रात्मामें व्याप्य वह ज्ञान ही है। ७- अन्तव्याप्यव्यापकभाव तदात्मकमें ही हुमा करता है अतदात्मकमें नहीं। --अंताप्यव्यापकभावमें ही कर्ताकर्मपना होता । १-पर व परभावोंसे विविक्त ज्ञानज्योतिर्मय सहज अन्तस्तत्वका प्रकाश जगनेपर परकर्तृत्वका भ्रम भारान्धकार नष्ट होकर शाश्वत अलौकिक सहज मानन्दका लाभ होता है । सिद्धान्त-१-- मोह राग द्वेषादि अनुभागका प्रस्फुटन कर्मका परिणाम है । - दृष्टि गत देहाकार प्रादि देहका परिणाम है। ३- कर्मनोकर्मादिविषयक प्रतिफलनविकल्प जीवका परिणाम है । ४-जीवाजीवविषयक यथार्थशान ज्ञानीका परिणाम है। दृष्टि-- १- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५) । २- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७न)। ३-- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५) । ४- सभेद शुद्धनिश्चयनय (४६५) । प्रयोग–अपनेको कर्म नोकर्म (देह) व पाश्रयभूत बाह्य पदार्थ इन समस्त परद्रव्योंके परिण मनसे अलग झानमात्र निरखनेका पौरुष करना ।।७।। प्रब जिज्ञासा होती है कि जो जीय पुद्गल कर्मको जानता है, उसका पुद्गलके साथ कर्ता-कर्मभाव है या नहीं है ? उसका उत्तर कहते हैं---[शानी] ज्ञानी [अनेकविध] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म] पुद्गलद्रव्यके पर्यायरूप कर्मोंको [जानत् अपि] जानता हुअा भी [खलु] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यके पर्यायोंमें [न परिगमति न तो परिणमित होता है न गह्णाति] न ग्रहण करता है [न उस्पद्यते] और न उत्पन्न होता है । तात्पर्य--पुद्गलकर्मसे अलग ही रहता हुमा आत्मा पुद्गलकर्मविषयक ज्ञान ही करता है, अतः पुद्गलकमंके साथ प्रात्माका कर्ता-कर्मभाव नहीं है। • टोकार्थ-चूंकि प्राप्य, विकार्य, निवर्त्य ऐसे व्याप्यलक्षण वाले पुद्गल परिणामको,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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