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समयसार रमात्र सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुर्याप्यत्वात् । व्याप्यव्यापकता तदास्मनि भवेन्नवातदात्मन्यपि, व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहो भारेण भिदस्तभो, शानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४६।। ।।७५॥ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एनं-द्वितीया एक० । आत्मा-प्रथमा एक० । यः-प्रथमा एक०। जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । झानी-प्रथमा एकवचन ॥५॥ दिक परिणाम पुद्गलकर्मका कार्य है, प्रात्माका कार्य नहीं । ५-पुद्गल परिणाम (मोहादिक) प्रात्मामें प्रतिफलित होते हैं, ज्ञेय होते हैं, इस कारण मोहादिक परिणामका प्रात्माके साथ ज्ञेय ज्ञायक संबंधका व्यवहार है । ६-पुद्गलपरिणामके शेय होनेपर प्रारमाका कर्म पुद्गल परिणामविषयक ज्ञान है और प्रारमा इस ज्ञानका कर्ता है, क्योंकि तब प्रात्मामें व्याप्य वह ज्ञान ही है। ७- अन्तव्याप्यव्यापकभाव तदात्मकमें ही हुमा करता है अतदात्मकमें नहीं। --अंताप्यव्यापकभावमें ही कर्ताकर्मपना होता । १-पर व परभावोंसे विविक्त ज्ञानज्योतिर्मय सहज अन्तस्तत्वका प्रकाश जगनेपर परकर्तृत्वका भ्रम भारान्धकार नष्ट होकर शाश्वत अलौकिक सहज मानन्दका लाभ होता है ।
सिद्धान्त-१-- मोह राग द्वेषादि अनुभागका प्रस्फुटन कर्मका परिणाम है । - दृष्टि गत देहाकार प्रादि देहका परिणाम है। ३- कर्मनोकर्मादिविषयक प्रतिफलनविकल्प जीवका परिणाम है । ४-जीवाजीवविषयक यथार्थशान ज्ञानीका परिणाम है।
दृष्टि-- १- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५) । २- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७न)। ३-- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५) । ४- सभेद शुद्धनिश्चयनय (४६५) ।
प्रयोग–अपनेको कर्म नोकर्म (देह) व पाश्रयभूत बाह्य पदार्थ इन समस्त परद्रव्योंके परिण मनसे अलग झानमात्र निरखनेका पौरुष करना ।।७।।
प्रब जिज्ञासा होती है कि जो जीय पुद्गल कर्मको जानता है, उसका पुद्गलके साथ कर्ता-कर्मभाव है या नहीं है ? उसका उत्तर कहते हैं---[शानी] ज्ञानी [अनेकविध] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म] पुद्गलद्रव्यके पर्यायरूप कर्मोंको [जानत् अपि] जानता हुअा भी [खलु] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यके पर्यायोंमें [न परिगमति न तो परिणमित होता है न गह्णाति] न ग्रहण करता है [न उस्पद्यते] और न उत्पन्न होता है ।
तात्पर्य--पुद्गलकर्मसे अलग ही रहता हुमा आत्मा पुद्गलकर्मविषयक ज्ञान ही करता है, अतः पुद्गलकमंके साथ प्रात्माका कर्ता-कर्मभाव नहीं है।
• टोकार्थ-चूंकि प्राप्य, विकार्य, निवर्त्य ऐसे व्याप्यलक्षण वाले पुद्गल परिणामको,