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________________ कर्तृ कर्माधिकार पुगलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्ममावः किं भवति किं न भवतीति चेत् णवि परिणमइ ण गिलइ उप्पज्जइ ण परदव्वपजाए। णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥७६॥ ___ ज्ञानी मुजानता भी, पुद्गल कर्मोके फल अनंतोंको । नहिं परिणमे न पावे, उपजे न परार्थभावोंमें ॥७६॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधं ।।७६।। यतो धं प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणाम कर्म पुद्गलद्रव्येरण स्वयमंतव्यपिकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रिय.. मारणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमंतापको भूत्वा बहिस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकल नामसंज्ञ -ण, वि, ण, ण, परदब्वपज्जाय, णाणि, जाणत, वि, हु, युगालकम्म, अणेयविह । धातुसंज-परि-नम नम्रीभावे, गिव्ह ग्रहणे तृतीयगणे, उब पज्ज गतौ, जाण अवबोधने। प्रातिपदिक-न, अपि, न, न, परद्रव्यपर्याय, ज्ञानिन्, जानव, अपि, खलु, पुद्गलकर्म, अनेकविध । मूलधातु -परि-णम प्रह्वत्वे शब्दे च, ग्रह उपादाने, ऋयादि, उत्-पद गतौ दिवादि, ज्ञा अवबोधने, पूरी आप्यायने दिवादि, गल जो कि स्वयं अन्तव्यापक होकर आदि-मध्य-अन्तमें व्यापकर पुद्गलपरिणामको ग्रहण करने घाले, पुद्गलपरिणामरूपसे परिणमने वाले और पुद्गलपरिणामरूपसे उत्पन्न होने वाले पुद्गलद्रव्यके ही द्वारा ही किया जाता है, उसको जानता हुआ भी ज्ञानी स्वयं अन्तव्यापक होकर बाह्यस्थित परद्रव्यके परिणामको प्रादि और मध्य अन्तमें व्यापकर उस रूप नहीं परिणमन करता, उसको पाप ग्रहण नहीं करता और उसमें उपजता भी नहीं है जैसे कि मिट्टी घटरूप को ग्रहण करती है, उसरूप परिणमन करती है, और उसको उपजाती है, इस कारण प्राप्य, विकार्य निर्वर्त्य स्वरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यका परिणाम स्वरूप कर्मको नहीं करते हुए मात्र पुद्गलकर्मको जानते हुए भी ज्ञानीका पुद्गलके साथ कर्तृकर्म भाव नहीं है। भावार्थ--पुद्गल कर्मको जीव जानता है तो भी उसका पुद्गलके साथ कर्ताकर्म भाव नहीं है, क्योंकि कर्म तीन प्रकारसे कहा जाता है । जिस परिणामरूप प्राप परिणमे, वह परिणाम विकार्य कर्म है । आप किसीको ग्रहण करे, वह वस्तु प्राप्य कर्म है। किसीको प्राप उत्पन्न करे यह कार्य निर्वयं कर्म है । जीव अपनेसे भिन्न पुद्गल द्रव्यरूप परमार्थसे नहीं परिरगमन करता, क्योंकि आप चेतन है, पुद्गल जड़ है, चेतन जड़प नहीं परिणमन करतः, परमार्थसे पुद्गलको ग्रहण भी नहीं करता, क्योंकि पुद्गल मूर्तिक है पाप प्रमूर्तिक है, तथा परमार्थसे पुद्गलको पाप उत्पन्न भी नहीं करता । क्योंकि चेतन जड़को किस प्रकार उत्पन्न कर सकता है ? इस प्रकार तीनों ही तरहसे पुद्गल जीवका कर्म नहीं है और जीव उसका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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