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________________ १६२ समयसार शामिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्दच न्याला यानिशा कर्मालाणस्य पुद्गलकर्म जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तु कर्मभावः ।।७६॥ अदने भ्यादि-गल सत्रणे चुरादि । यदविवरण--न-अव्यय । अपि-अव्यय । परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुम्प एकवचन किया। न-अव्यय । गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । न-अव्यय । परद्रव्यपर्याये-सप्तमी एक० । ज्ञानी-प्रथमा एक० । जानन्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । अपि--अव्यय । खलु-अध्यथ । पुद्गलकर्म-प्रथमा एक ० । अनेकविधम्-प्रथमा एकवचन ।।७६।। . कर्ता नहीं है । जीवका स्वभाव ज्ञाता है, वह पाप ज्ञानरूप परिणमन करता हुमा उसको जानता है । ऐसे जानने वालका परके साथ कर्ता-कर्मभाव कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। __ प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा कर्म व नोकर्मके परिणामको नहीं करता, ऐसा जो जानता वह ज्ञानी है । इसपर यह प्रश्न होता है कि पुद्गलवामको जीव जानता तो है, इस कारण तो जीवका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृ कर्मत्य भाव होना ही चाहिये उसके उत्तरमें इस गाथाका अवतार हुप्रा है। तथ्यप्रकाश- (१) अन्तर्व्यापकको कर्ता कहते हैं । (२) अन्ताप्यको कर्म कहते हैं । (३) प्रत्येक कर्म प्राप्य विकार्य और निर्वयं रूपमें होता है । (४) निश्चयतः प्राप्य विकार्य और निर्वयं अभिन्न व्यापक द्वारा अभिन्न व्याप्य हो होते हैं । (५) पुद्गल कारणवर्गरणाके प्रकृति अनुभागरूप परिणमनको वह पुद्गलद्रव्य हो ग्रहण कर रहा है वही पुद्गलद्रव्य उस विकाररूप बन रहा है, वही पुद्गलद्रव्य उस रूपसे अपनेको रच रहा है ! उस पुद्गलपरिणाम । को न जीव ग्रहण कर रहा, न उस विकाररूप बन रहा और न उसरूप अपनेको रच रहा । (६) जीव पुद्गलपरिणामविषयक ज्ञानको ग्रहण कर रहा उस ज्ञानरूप परिणम रहा उसी ज्ञान रूप अपनेको रच रहा सो जीव परद्रध्य पुद्गलकर्मको न ग्रहण कर सकता न कर्मरूप परिणम सकता, न कर्मरूप रचा जा सकता । (७) ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तो भी पुद्गलकर्मको कर नहीं सकता, क्योंकि पुद्गलकर्म जीवके द्वारा न प्राप्य है, न विकार्य है और न निर्वर्त्य है। सिद्धान्त---१-ज्ञानी अनेकविध पुद्गलकर्मका ज्ञाता है । २-ज्ञानी पुद्गलकर्मज्ञेयाकार परिणमित केवल निज आत्माका ज्ञाता है । ३- ज्ञानी पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है । दृष्टि- १- अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५५) । २-- कारककारकिभेदक ! सद्भूतव्यवहार (७३)1 ३- प्रतिषेधक शुद्धनय प्रतिपादक व्यवहार (७०) । प्रयोग - पुगलकर्मका सब कुछ पुद्गलकर्ममें ही होता ऐसा जानकर अपने अकर्ता. स्वभावरूप ज्ञान मात्र निजस्वरूपमें मग्न होनेका पौरुष करना ॥७६॥
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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