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निर्जराधिकार अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म । अपरिग्गहो यधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥२११॥
निर्वाञ्छक अपरिग्रह, कहा है ज्ञानी न चाहता पाप ।
इससे पापपरिग्रह-विरहित ज्ञायक पुरुष होता ॥२११॥ अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्म। अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।। २११ ।।
इच्छा परिग्रहः, तस्य परिग्रहो नास्ति यस् च्छा नास्ति, इच्छा त्वज्ञानमयो भावः । प्रज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी प्रज्ञानमयस्थ भावस्य इच्छाया अभावादधर्मं नेच्छति । तेन ज्ञानिनोऽधर्मपरिग्रहो नास्ति, ज्ञानमयस्यकस्य शायकभावस्य भावादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् । एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानभायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । प्रनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि ॥ २११ ।।
नामसंज- अपरिम्गह, अणिच्छ, भणिद, पाणि, य, ण, अधम्म, अपरिग्गह, अधम्म, जाणग, त, त। चातुसंज-भण कथने, इच्छ इच्छायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-अपरिग्रह, अनिच्छ, भणित, ज्ञानिन्, च, 'न, इच्छति, अधर्म, अपरिग्रह, अधम्म, शायक, तत्, तत् । मूलधातु--भण शब्दार्थः, इषु इच्छायां, भू सत्तायां । पदविवरण-अपरिगाहो अपरिग्रह:-प्रथमा एकवचन । अणिच्छो अनिच्छ: प्रथमा एकवचन। भणिदो भणित:-प्रथमा एक० कृदन्त । णाणी ज्ञानी-प्र० एक०। य च-अव्यय । पन-अध्यय । इच्छदि इच्छति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । अधम्म अधर्म-द्वितीया एक० । अपरिगहो अपरिग्रह:-प्र०ए०। अधम्मस्स अधर्मस्य-षष्ठी एक० । जाणगो ज्ञायक:-प्र० ए० । तेण तेन-तृतीया एकवचन । सो स:-प्रथमा एक० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २११ ॥ है इस कारण ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है ।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानोके पुण्यका परिग्रह नहीं है तब यह भी जिज्ञासा हुई कि किसी ज्ञानीके कभी विषय में प्रवृत्ति हो तो पापबन्ध तो होता ही है तब क्या उसके पापका परिग्रह है उसके समाधान में इस माथाका अवतार हुआ है।
तथ्यप्रकाश-१-प्रोपाधिक भावोंमें रुचि होना प्रज्ञान मय भाव है । २-यद्यपि प्रौपा‘धिक भाव भी प्रज्ञानभाव है, तो भी ज्ञानीकी उससे उपेक्षा और ज्ञानमात्र अन्तस्तत्व में प्रतीति होनेसे उसे अज्ञानमय भाव नहीं कहा गया है । ३-पापकर्म व पापभावमें किञ्चिन्मात्र भी हित विश्वास न होनेसे और हितमय शाश्वत चैतन्यस्वरूपकी प्रतीति होनेसे ज्ञानीके अधर्म का परिग्रह नहीं है । ४-भोगादिकी हितास्थासहित इच्छा ही संसारवर्द्धक इच्छा है।
सिद्धान्त-१-पापभाव औपाधिक भाव होनेसे उसका स्वामी ज्ञाता द्रव्य नहीं है।