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समयसार स्य भावस्य इच्छाया अभावाद् धर्म नेच्छति । तेन ज्ञानिनो धर्मपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यै. कस्य ज्ञायकभावस्य भावाद् धर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।। २१० ।।
अव्यय । ण न-अव्यय । इच्छदे इच्छति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । धम्म धर्म-द्वितीया एकवचन । अपरिगहो अपरिग्रहः-प्रथमा एक० । दु तु, धम्मस्स धर्मस्य-पष्ठी एक० । जाणगो ज्ञायक:-प्रथमा एकवचन । तेण तेन-तृतीया एक० । सो स:-प्रथमा एक० । होई भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २१० ।।
सिद्धान्त-(१) सम्यक्त्वघातक प्रकृतियोंका उपशमादि होनेसे ज्ञानोके मज्ञानमय भाव न होनेसे स... भार ई. होता है। (3) जानी र ज्ञानवृत्तिरूप परिणमता है ।
दृष्टि-१- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २--शुद्धनिश्चयनय (४६)।
प्रयोग- पुण्यभाव होनेपर भी उसे अपना स्वरूप न जानकर उससे परे अविकार शानस्वरूप में उपयुक्त होनेका पौरुष करना चाहिये ।। २१० ।।
अब ज्ञानीके पापका परिग्रह नहीं है यह बताते हैं-[अनिच्छः] धुच्छारहित पुरुष [अपरिग्रहः] अपरिग्रह [मरिणतः] कहा गया है । [1] और [ज्ञानी] ज्ञानी [अधर्म] अधर्म याने पापको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है । तेन] इस कारण [सः] वह अधर्मस्य] अधर्मका [अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं है, किन्तु [जायकः] अधर्मका ज्ञायक ही [भवति होता
तात्पर्य पापभावको कमरस जानने वाले ज्ञानीको पापभावसे रंच भी लगाव नहीं है, प्रत्युत विरक्ति ही है, इस कारण असातादि पापकर्म रस भी प्रतिफलित हो तब भी ज्ञानी के अधर्मका परिग्रह नहीं है ।
टीकार्य-इच्छा परिग्रह है। उसके परिग्रह नहीं जिसके इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है। किन्तु अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं है, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव है। इस कारण ज्ञानी प्रज्ञानमय भावरूप इच्छाका अभाव होनेसे अधर्मको पापको नहीं चाहता है, इस कारण ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायक भावका सद्भाव होनेसे यह अधर्मका केवल ज्ञायक ही है। और इसी प्रकार प्रधर्मपदके परिवर्तनसे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनके सोलह सूत्र लगा लेना चाहिये । भावार्थ-ज्ञानीको अपने सहज स्वरूपकी अनुभूति हुई है तब उसको कभी बाह्य प्रवृत्ति भी हो तो भी ज्ञानमय भावको न छोड़कर होती है, अतः जब चारित्रमोहको बलबत्तासे, प्रसंयम भाव होता है तब उसे औपाधिक विकार जानकर उससे उपेक्षाभाव रखता