________________
निर्जराधिकार अपरिगहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्म । अपरिगहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होई ॥२१॥
निर्वाञ्छक अपरिग्रह, कहा है ज्ञानी न चाहता पुण्य ।
इससे पुण्यपरिग्रह-विरहित ज्ञायक पुरुष होता ॥२१०॥ अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्म । अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२१०।।
__ इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । झानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति, ततो ज्ञानी अज्ञानमय
नामसंज्ञ-अपरिग्गह, अणिच्छ, भणिद, णाणि, य, ण, धम्म, अपरिग्गह, दु, धम्म, जाणग, त, त । धातुसंज्ञ- परि-गिण्ह ग्रहणे, भण कथने, इच्छ इच्छायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-अपरिग्रह, अनिच्छ, भणित, ज्ञानिन्, च, न, धर्म, अपरिग्रह, तु, धर्म, ज्ञायक, तत्, तत् । मूलधातु-परि-ग्रह प्रहयो, भण शब्दार्थः, इषु इच्छायां, भू सत्तायां । पदविवरण-अपरिग्गहो अपरिग्रहः-प्रथमा एक० । अणिच्छो अनिच्छ:-प्रथमा एकवचन । भणिदो भणित:-प्रथमा एक० । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । य चहोता है, अतः ज्ञानी अज्ञानमय भावरूप इच्छाके प्रभावसे धर्म (पुण्य) को नहीं चाहता है । इस कारण ज्ञानीके धर्मपरिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके होनेसे यह धर्मका केवल झायक ही होता है । भावार्थ---ज्ञानीने सहज ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्वका अनुभव करके प्रलोकिक आनन्द पाया है, अतः अज्ञानमय भाव न होनेसे इच्छाका भी परिग्रह नहीं है, तो भी जब तक पूर्ण निरास्रव नहीं हुप्रा तब तक पुण्यका भी. . प्रास्त्रव होता है, किन्तु पुण्यका स्वामित्व न होनेसे परिग्रह नहीं है वह तो ज्ञानस्वरूपको ही अपना सर्वस्व स्वीकार करता है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सामान्य रूपसे बताया था कि परपदार्थ किसी भी अवस्थाको प्राप्त होतो वह मेरा कुछ भी परिग्रह नहीं है । अब इस ही अपरिग्रहताके प्राशयको विशेष रूपसे कहना है सो वह विशेषरूप चार प्रकार में प्रसिद्ध है---(१) पुण्य, (२) पाप, (३) भोजन, (४) पान (पीना) । उसमें से प्रथम पुण्य परिग्रहके विषयमें अपरिग्रहताको स्पष्ट इस गाथामें किया है।
__तथ्यप्रकाश-- (१) इच्छाकी इच्छा प्रज्ञानमय भाव है वह अविकार ज्ञानस्वभावके अनुभवका अलौकिक आनन्द पाने वालेके याने ज्ञानीके नहीं होता । (२) अज्ञानमय इच्छा जिसके नहीं है अगत्या पुण्यभाव होनेपर भी वह पुण्यभाव या पुण्यकर्मको भी नहीं चाहता, शुभोपयोगरूप धर्मको नहीं चाहता । (३) ज्ञानी पुण्यभाव होनेपर भी पुण्यभाव को नहीं चाहता, अत: उसके पुण्यका भी परिग्रह नहीं है।