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________________ समयसार स्व, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं अहमेव मम स्वामीति जानामि ॥ इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेक हेतुं । अज्ञान मुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।।१४५।। ।। २०६ ।। लोट् अन्य पुरुष एकवचन । वा-यगर ! भिज्ज भिद्यतांवर अकोट म गुरुल एकवचन । णिज्जदु नौयतां-कर्मवाच्य लट् अन्य पुरुष एक० । अहव अथवा-अव्यय । जादु यातु-लोट् अन्य पुरुष एकवचन । विप्पलयं विप्रलय-द्वितीया एकवचन । जम्हा यस्मात-पंचमी एक० । तम्हा तस्मात्-पं० एक० । गच्छदु गच्छतु-आज्ञार्थ लोट् अन्य पुरुष एकः । तह तथा--अव्यय । वि अपि-अव्यय । हु खलु-अव्यय । ण नअव्यय । परिग्गहो परिग्रहः-प्रथमा एक० । माझ मम-षष्ठी एकवचन ।। २०६ ।। नहीं रखता, अतः ज्ञानी अपरिग्रही है । - ज्ञानीका दृढ़ निश्चय है कि मेरा मात्र में ही सर्बस्व हूं और मैं अपने इस स्वरूपसर्वस्वका ही स्वामी हूं। सिद्धान्त-१-ज्ञानी स्नमें तन्मय अखण्ड ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्वको ही प्रापा मानता है। २-परद्रव्यमें या किसी भी द्रव्यमें जो भी परिणति होती है वह उस हो के परिणामसे होती है, कहीं उस रूप अन्य द्रव्य नहीं परिणम जाता है। दृष्टि-१- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २-- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय, परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८, २९) । प्रयोग---समस्त परद्रव्योंको अपनेसे अत्यन्त भिन्न मानकर उनकी कुछ भी परिणति हो उससे हर्ष विषाद न मानकर अपने सहज ज्ञानस्वभावमें ही रमकर तृप्त होना चाहिये ॥२०६।। अब बतलाते हैं कि ज्ञानीके धर्मका अर्थात् पुण्यका भी परिग्रह नहीं है---[अनिच्छः] इच्छारहित प्रात्मा [अपरिग्रहः] परिग्रहरहित [भरिणतः] कहा गया है [च] और [रणारणी] शानी [धम्म] धर्म अर्थात् पुण्यको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है [सेन] इस कारण [सः] वह [धर्मस्य] धर्मका याने पुण्यका [अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं हैं [तु] वह तो [ज्ञायकः]. मात्र ज्ञायक [भवति] होता है। तात्पर्य-ज्ञानी द्रव्यपुण्यको तो उपादानतया भी अत्यन्त भिन्न जानता है और भावपुण्यको औपाधिक होनेके कारण अपनेसे भिन्न जानता है सो वह ज्ञातामात्र है, पुण्यका भी परिग्रही नहीं है। टोकार्थ-इच्छा परिग्रह है । जिसके इच्छा नहीं है, उसके परिग्रह नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और प्रज्ञानमय भाव ज्ञानीके होता नहीं है, शानीके ज्ञानमय ही भाव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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