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________________ ३७७ निर्जराधिकार छिजदु वा भिज्जदु वा णिज्जदुवा अहव जादु विप्पलयं । जह्मा तमा गच्छदु तहवि हु ण परिग्गहो मझ ॥ २०६ ॥ छिदो भिदो ले जावो, विनशो अथवा जहां तहां जायो। तो भी निश्चयसे कुछ, कोइ परिग्रह नहीं मेरा ॥२०६॥ छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयं । यस्मात्तस्माद् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम । छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वा विप्रलयं यातु वा यतस्ततो गच्छतु वा तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि । यतो न परद्रव्यं मम स्वं नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य नामसंज्ञ-वा, वा, वा, अहव, विप्पलय, ज, त, तह, वि, हु, ण, परिगह, अम्ह । धातुसंश-च्छिद छेदने, भिंद विदारगणे, ने प्रापणे, जा गती, गच्छ गतौ । प्रातिपदिक-वा, वा, वा, अथवा, विप्रलय, यत्, वत्, तथा, अपि, खलु, न, परिग्रह, अस्मद् मूलषातु-छिदिर् द्वेधीकरणे रुधादि, भिदिर् विदारणे. रुधादि, णी प्रापणे स्वादि, या प्रापणे अदादि, गम्ल गतौ । पदविवरण-छिज्जदु छिद्यता-कर्मवाच्य होता हुआ यह ज्ञानी फिर उसी परिग्रहको विशेषरूपसे छोड़नेके लिये प्रवृत्त हुमा है। भावार्थ-- परद्रव्यको निज स्वरूपसे जाननेका कारण प्रज्ञान है सो अज्ञानको मूलसे मिटानेकी ठानने वाले इस ज्ञानीने सामान्यसे सर्व परद्रव्यको हटा दिया अब नाम ले लेकर विशेषरूपसे परिग्रहको छोड़नेके लिये प्रवृत्त हुआ है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि यदि मैं परद्रव्यका परिग्रहण करूं तो मैं परद्रव्य अजीवरूप ही हो जाऊंगा, किन्तु ऐसा होता ही नहीं, मैं तो ज्ञाता हूं सो परिग्रह मेरा नहीं है। इस तथ्यके जाने बिना जीव दुःखी ही रहता है सो इस तथ्यका और दृढ़ निश्चय करना और दृढ़ प्रतिज्ञ होना प्रावश्यक है, इसी कारण इस गाथा द्वारा सामान्यतया अपरिग्रहता दिखाकर विरक्तिको दृढ़ किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- ज्ञानी अपने को भायक स्वभावमात्र समझता है इस कारण सहज हो समस्त इसके परद्रव्यसे उपेक्षा रहती है । २- इन बाह्य परद्रव्योंको प्रायः पांच हालतें देखी जाती हैं उन्हींका यहाँ संकेत है। ३- किसी परपदार्थके दो या अनेक दक हो जाते हैं जो कि मोहीको अनिष्ट है। ४-किसी परद्रव्यमें अनेक छिद्र हो जाते हैं जिससे वह सारहीन हो जाता है जो कि मोहोको अनिष्ट है ! ५- किसी परपदार्थको कोई उठाकर ले जाता है जिसका वियोग मोहीको अनिष्ट है । ६- कोई परद्रव्य नष्ट हो जाता है याने भस्म यादिके रूपमें पूरा बदल जाता है जो कि मोहीको अनिष्ट है । ७- कोई परपदार्थ जिस किसी भी प्रकार अन्यत्र माना जाता है जो कि मोहोको अनिष्ट है । ८-ज्ञानी परद्रव्यका कुछ भी हो, परद्रव्यसे सगाव ही
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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