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________________ ६ १६ समयसार चेतना । सा तु समस्तापि संसारबीजं, संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञान चेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्म फलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञान चेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या । तत्र तावत्सकलकर्मसंन्यासभावनां नाटयति-- कृतकारितानुमननै स्त्रि कालविषयं मनोवचनकार्य: । परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नककम्मफल, अम्ह, कय, ज, दु, कम्मफल, स, त, पुणो, वि, वीय, दुक्ख, अट्ठवि, वेदंत, कम्मफल, सुहिद, होता है [स] वह श्रात्मा [ पुनरपि ] फिर भी [दुःखस्य बीजं अष्टविधं तत् बध्नाति] दुःखके बीज ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मको बाँधता है । तात्पर्य - प्रज्ञान चेतना में स्थित जीव कर्मको बाँधता हुआ संसार में जन्म मरण कर संकट सहता रहता है । टीकार्थ -- ज्ञानसे अन्य भावों में ऐसा अनुभव करना कि 'यह मैं हूं' वह प्रज्ञानचेतना है । वह दो प्रकारकी है— कर्मचेतना, कर्मफल चेतना । उनमें से ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में . ऐसा अनुभव करना कि 'इसको मैं करता है' यह कहै और ज्ञान के सिवाय अन्य भावों में ऐसा अनुभव करना कि 'इसको मैं भोगता हूं' यह कर्मफलचेतना है | वह समस्त ही श्रज्ञानचेतना संसारके बीजभूत आठ प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मका बीजपना होनेसे संसारका बीज है । इसलिये मोक्षको चाहने वाले पुरुषको प्रज्ञानचेतनाका नाश करनेके लिये सब कभ के छोड़ देनेकी भावनाको भाकर और समस्त कर्मोके फलके त्यागको भावनाको नृत्य कराकर स्वभावभूत भगवती एक ज्ञानचेतनाको निरन्तर नचाना चाहिये याने भाना चाहिये । वहाँ प्रथम हो सकल कर्मके संन्यासको भावनाको सातिशय भाता है उसको कलशरूप काव्य में कहते हैं - कृत इत्यादि । अर्थ- प्रतीत अनागत वर्तमानकाल सम्बन्धी सभी कर्मोंको कृम, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, कायसे छोड़कर उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाको में प्रवलम्बन करता हूं । भावार्थ - यहां त्रिकालविषयक कर्मपरिहार करने का भाव है प्रतिक्रमण, प्रालोचना व प्रत्याख्यान । सो त्रिकालविषयक सब कमके त्याग करनेके कृत कारित, अनुमोदना और मन, वचन, कायके ४९ भंग होते हैं । यहां अतीतकाल सम्बन्धी कर्मके त्याग करनेरूप प्रतिक्रमणके निम्नांकित ४६ भंग: कहते हैं - यवहं इत्यादि । अर्थ- जो मैंने मनसे, वचनसे तथा कायसे कर्म किया, कराया और दूसरेके द्वारा करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । (कर्म करना, कराना और करने वाले का अनुमोदन करना संसारका बीज है, यह जाम लेनेपर उस दुष्कृत के प्रति बुद्धि के कारण उससे ममत्व छूट जाना यो उसका मिथ्या करना है ) 1181, - 122
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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