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________________ २६४ समयसार तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेन धावस्थायां सर्वसः दर्जनमात्मानमपिलानदज्ञानभावेनैवेदमेवमबतिष्ठते । ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बंधः प्रतः स्वयं बंधत्वात्कर्म प्रतिषिद्धं ॥१६॥ रयेण कर्मरजसा-तृतीया एक० । णियेण निजेन-तृ० एक० । अवच्छण्णो अवच्छन्नः-प्रथमा एक० । संसारसमावग्णो संसारसमापन्न:-प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । विजाणदि विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सव्वदो सर्वत:-अव्यय पंचम्यर्थे । सब्बं सर्व-द्वितीया एक० ।। १६० ।। षित व विकल्पसंकटापन्न है । दृष्टि-- -- परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३- अशुद्धनिश्चननय (४७) । प्रयोग-शुभाशुभभावोंको साक्षात् परमार्थदृष्टिका बाधक जानकर उनसे उपेक्षा करके अबाधस्वभाव शाश्वत अन्तःप्रकाशमान ज्ञानस्वरूपके अभिमुख रहनेका पौरुष करना ।। १६०।। अब कर्मका मोक्ष हेतुतिरोधायीपना दिखलाते हैं--[सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं] सम्यक्त्वको रोकने वाला [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व है ऐसा [जिनवरः] जिनवरदेवोंने [परिकथितं] कहा है [तस्योदयेन] उसके उदयसे [जीवः] यह जीव [मिथ्याष्टिः] मिथ्यादृष्टि हो जाता है [इतिज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये । [झानस्य प्रतिनिबद्ध] ज्ञानको रोकने वाला [अज्ञान] मज्ञान है ऐसा जिनवरैः परिकथितं] जिनवर देवोंने कहा है [तस्पोदयेन] उसके उदयसे [जीवः] यह जीव [अज्ञानी] अज्ञानी [भवति होता है ऐसा [ज्ञातव्यः] जानना चाहिए। [चारित्रप्रतिनिबद्धः] 'चारिश्रको रोकने वाला [कषायः] कषाय है ऐसा [जिनवरैः] जिनेन्द्रदेवोंने [परिकथितः] कहा है [तस्य उत्येन] उसके उदयसे [जीवः] यह जीव प्रचारित्रः] प्रचारित्री [भवति] हो जाता है ऐसा [ज्ञातव्यः] जानना चाहिये । तात्पर्य–मिथ्यात्व प्रज्ञान व कषायके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि प्रज्ञानी व अचारित्री हो जाता है। टोकार्थ-सम्यक्त्व ओकि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसको रोकने वाला प्रज्ञान है, वह स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ज्ञानके अज्ञानपना है; और चारित्र जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसका प्रतिबंधक कषाय है, वह स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञान के प्रचारित्रपना है । इस कारण कर्ममें स्वयमेव मोक्ष के कारणभूत सभ्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का तिनायिपना होनेसे कर्मका प्रतिषेध किया गया है। मावार्य-मोक्षके कारणरूप स्वभाव है सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र । इन तीनोंके प्रतिपक्षी कर्म मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय ये तीर इसलिये वे इन तीनोंको प्रकट नहीं होने देते, इस कारण कमका प्रतिषेध किया गया है। अशुभ कर्म मोक्षका हेतु तो क्या है बाधक ही है, परन्तु शुभकर्म भी बंधरूप ही है । इस
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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