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________________ समयसार भुंजानस्यापि विविधानि चित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि । शंखस्य श्वेतभावो नापि शक्यते कृष्णकः कतु। तथा शानिनोऽजप सचित्तचित्तामा तानि द्रव्याणि । भुंजानरयापि ज्ञानं न शक्यमझानतां नेतु ॥२२॥ यदा म एवं शंखः श्वेतस्वभावं तक प्रहाय । गच्छेत् कृष्णभावं तदा शुक्लत्वं प्रजह्यात् ।।२२२।। तथा ज्ञान्यपि खलु यदा ज्ञानस्वभावं तक प्रहाय । अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत् ।।२२३।। यथा खलु शंखरूप परद्रव्यमुप जानस्यापि न परेण श्वेतभावः कृष्णीकर्तुं शक्येत पर. स्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः । तथा किल ज्ञानिनः परद्रव्यमुप जानस्यापि न परे। ज्ञानमज्ञानं कतु शक्येत परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपरत्तेः । ततो ज्ञानिनः परापराधनिमितो नास्ति बंधः । यथा च यदा स एव शंखः परद्रव्यमुप जानोऽनुप जानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते तदास्य श्वेतभाव: स्वयंकृतः कृष्णभाव: स्यात् । तथा यदा स संख, सेदसहाव, तय, किण्हभाव, तइया, सुक्कत्तण, तह, गाणि, वि, हु, जइया, गाणसहाव, तय, अण्णाण, परिणद, तइया, अण्णाणद । धातुसंज्ञ भुज भक्षरणे भोगे च, सक्क सामर्थ्य, कर करणे, ने प्रापरणे, प-जहा त्यागे, गच्छ गतौ । प्रातिपदिक-मुंजान, अपि, विविध, सचित्ताचित्तमिश्रित, द्रव्य, शंख, श्वेतभाव, न, अपि, कृष्णक, तथा, शानिन्, अपि, विविध, सचित्ताचितमिश्रित, द्रव्य, भुंजान, अपि, ज्ञान, न, शक्य, इस कारण ज्ञानीके परका किया बन्ध नहीं है अाप हो अज्ञानी बने तब अपने अपराधके कारण से बंध होता है । भावार्थ-जैसे शंख सफेद है वह काले पदार्थको भक्षण करे तो भी काला नहीं होता, जब स्वयं ही कालिमारूप परिणमे तब काला होता है उसी प्रकार ज्ञानी उपभोग करता हुमा भी प्रज्ञानरूप नहीं होता जब वह स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमन करे तब अज्ञानी होता है, तभी प्रज्ञानके कारण बंध करता है। अब इस तथ्यको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-ज्ञानिन् इत्यादि । अर्थ-हे ज्ञानी ! तुझे कुछ भी कर्म करनेके लिये उचित नहीं है तो भी यदि यह कहा जा रहा है कि परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूं सो यह बड़े खेदकी बात है कि जो तेरा नहीं उसको तू भोगता है सो तू खोटा खाने वाला है.। यदि तू कहे कि परद्रव्यके उपभोगसे बंध नहीं होता ऐसा सिद्धान्तमें कहा इसलिये भोगता है, तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है ? तू ज्ञानरूप हुग्रा अपने स्वरूप में निवास कर तो बंध नहीं है अन्यथा याने यदि भोगने की इच्छा करेगा तो तू निश्चित अपने अपराधसे बन्धको प्राप्त होगा। मावार्थ-परद्रव्यके भोगने वालेको तो लोकमें चोर अन्यायी कहते हैं। सिद्धान्तमें जो उपभोगसे बंध नहीं कहा है वह ऐसे है कि ज्ञानी यदि इच्छाके बिना परकी बरजोरीसे उदयमें प्रायेको भोगे तो उसके बंध नहीं कहा और जो इच्छासे भोगेगा तो पाप स्वयं अपराधी हुआ, तब बंध क्यों न होगा ? अब इसी अर्थका दृढ़ीकरण काव्यमें करते हैं--कर्तारं इत्यादि । अर्थ--कर्म अपने
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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