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निर्जराधिकार भुजंतम्सवि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिये दव्वे । मुखस्स सेदभावो णवि सक्कदि किएणगो काउं ॥२२०॥ तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचितमिस्सिए दब्वे । भुजंतस्सवि णाणं ण सक्कमणगाणदं णेदु ॥२२१॥ जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण । गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ॥२२२॥ तह णाणी वि हु जइया गाणसहावं तयं पजहिऊण । अण्णाोण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे ॥२२३॥ मिश्र सचित्त प्रचित्त हि, नाना भोगोंको भोगते भी तो। शंखका श्वेतरूपक, किया नहीं जा सके काला ॥२२०॥ ज्यौं भोक्ता मी नाना, सजीव निर्जीव मिश्र द्रव्योंका। ज्ञानीका ज्ञान कहीं, मावान किया न गा सकता !" २२१॥ जब ही वह शंख कभी, उस श्वेत स्वभावको छोड़ करके । पाचे कालापनको, तब ही शुक्लत्वको तजता ॥२२२॥ त्यौं ज्ञानी भी जब ही, अपने उस ज्ञानभावको तसकर ।
हो प्रज्ञानविपरिपत, तब ही प्रज्ञानको पाता ।।२२३॥ नामसंज- भुंजत, वि, विविह, सच्चित्ताचितमिस्सिय, दव, संख, सेदभाव, ण, वि, किण्णग, तह, णाणि, वि, विविह, सच्चित्ताचित्तमिस्सिय, दव, भुंजत, वि, गाण, ण, सक्क, अण्णाणद, जइया, स, एव, किया जानेके लिये शक्य नहीं है, क्योंकि परमें परभावस्वरूप करनेका निमित्तपना नहीं होता। उसी तरह परद्रव्यको भोगते हुए भी ज्ञानीका ज्ञान परके द्वारा अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता, क्योंकि दूसरेमें परभावस्वरूप करनेका निमित्तपना नहीं है । इस कारण ज्ञानीके परापराधनिमित्तक बंध नहीं है । और जिस समय वही शंख परद्रव्यको भोगता हो अथबा न भोगता हो, परन्तु अपने श्वेतपनेको छोड़कर स्वयमेव कृष्णभाव स्वरूप परिणमता है उस समय इस शंखका श्वेतभाव अपने द्वारा ही किया गया कृष्णभाव स्वरूप होता है, उसी तरह वही ज्ञानी परद्रव्यको भोगता हो अथवा न भोगता हो, परन्तु जिस समय अपने ज्ञानको छोड़ स्वयमेव प्रज्ञानसे परिणमन करे उस समय इसका ज्ञान अपना ही किया प्रज्ञानरूप होता है।