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समयसार
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शक्यते । अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेत् ज्ञानं भवत्संततं जानिन् मुंव परापराधजनितो नास्तीह बंधस्तव ।।१५०॥ ॥ २१८-२१६ ।।। दव्येसु सर्वद्रव्येषु-सप्तमी बहु० । कम्ममझगदो कर्ममध्यगतः-प्र० एक। लिप्पांद लिप्यते--वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन । कम्मरएण कर्मरजसा-तृतीया एक० । दुतु-अव्यय । कद्दममझे कर्दममध्येसप्तमी एफ० । जहा यथा-अव्यय । लोहं-प्रथमा एकवचन ।। २१८-२१६ ।। राजी होनेके कारण कर्मसे लिपनेके स्वभाव वाला है जैसे कि कर्दममे पड़ा हुप्रा लोहा कर्दमसे लिपनेके स्वभाव वाला है । (५) जीवका बन्धन प्रज्ञानके कारण होता है बाह्य वस्तुके उपभोगके कारण नहीं।
सिद्धान्त ---(१) एक द्रव्यके द्वारा दूसरा द्रव्य परिण माया नहीं जा सकता । (२) द्रव्य स्वयंके परिणमनके द्वारा स्वयंको परिणति क्रियासे स्वयंमें परिणमता है।
दृष्टि- १- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। २- कारककारकिभेदक शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय (७३)।
प्रयोग-स्वभाव व परभावमें अभेदबुद्धि न होकर स्वभावमें उपयुक्त होनेपर कर्मलेप नहीं होता है ऐसे निर्णयके बलसे स्वभावके अभिमुख रहनेका पौरुष करना ।। २१८-२१६ ॥
अब पूर्व गाथाके अर्थको दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं—[विविधानि] अनेक प्रकारके [सचिसाचित्तमिश्रितानि] सचित्त अचित्त और मिश्रित द्रिश्यारिणी द्रव्योंको [भुजानस्यापि] भक्षण करते हुए भी [शंखस्य शंखका [श्वेतभावः] सफेदपना [कृष्णकः कतु] काला किया जानेके लिये [नापि शक्यते] रंच भी शक्य नहीं [लथा] उसी तरह [विविधानि] अनेक प्रकारके [सचिसाचित्तमिश्रितानि सनित्त अचित्त और मिश्रित [द्रव्यारिण] द्रव्योंको [भुजानस्यापि] भोगते हुए भी [ज्ञानिनः] ज्ञानीका [ज्ञानं अपि] ज्ञान भी [अज्ञानतां नेतुन शक्यं] अज्ञानपनेको किया जाना शक्य नहीं है । और जैसे [स एवं शंखः] वहो शंख [यदा] जिस समय [तकं श्वेतस्वभावं] अपने उस श्वेतस्वभावको [प्रहाय] छोडकर कृष्णभावं] कृष्णभावको [गच्छत् प्राप्त होवे [तवा] तब [शुक्लत्वं] सफेदपनको [प्रजात्] छोड़ देता है [तथा] उसी तरह [जानी अपि] शानी भी खिलु यवा] निश्चयसे जब [तकं ज्ञानस्वभावं] अपने उस ज्ञानस्वभावको [प्रहाय] छोड़कर [अज्ञानेन परिणतः] अज्ञानरूपसे परिणत होवे [तदा] उस समय [अज्ञानता] प्रज्ञानपनेको [गच्छेत्] प्राप्त होता है ।
तात्पर्य-मानी किसी भी परद्रव्यके द्वारा प्रज्ञानरूप नहीं हो सकता है । टीकार्थ-जैसे परद्रव्यको भक्षण करते हुए भी शंखका श्वेतपन परद्रव्य के द्वारा काला