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________________ निर्जराधिकार ३६५ स्वात् ज्ञान्येव । यथा लोहं कर्दममध्यगतं सत्कर्दमेन लिप्यते तल्लेपस्वभावत्वात् तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यमतः सन् कर्मणा लिप्यते सर्वपरद्रव्यकृत रागोपादानशीलत्वे सति तल्लेपस्वभावत्वात् ।। याहक तागिहास्ति तस्य वसतो यस्य स्वभावो हि यः कतुनष कथंचनापि हि परैरन्यादृशः रागप्रहायः-प्रथमा एक० । सम्बदन्वेसु सर्वद्रव्येषु-सप्तमी बहु० । कम्ममझगदो कर्ममध्यगत:-प्र० ए०। णो नो-अव्यय । लिप्पदि लिप्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० भावकर्मवाच्य क्रिया । रजएण रजसातृतीया एक० । दु तु-अव्यय । कद्दममज्झे कर्दममध्ये-सप्तमी एक०। जहा यथा-अध्यय । कणयं कनकप्रथमा एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एकवचन । पुण पुन:-अव्यय । रत्तो रक्त:-प्रथमा एक ० । सव्व जंग लग जाता है उसी प्रकार ज्ञानी कर्मके मध्यगत है तो भी वह कर्मसे नहीं बँधता । और प्रज्ञानी कर्मसे बंध जाता है । अब इस प्रर्थका और भी स्पष्टीकरण कलशमें कहते हैं-याहक इत्यादि । अर्थ-इस लोकमें निश्चयतः जिस वस्तुका जैसा स्वभाव है उसका वह स्वभाव वैसे ही स्वाधीनपनेसे है । सो वह स्वभाव अन्य किसी के द्वारा अन्य सरीखा कभी नहीं किया जा सकता । अतः झान निरन्तर ज्ञानस्वरूप ही होता है शान कभी प्रज्ञान नहीं होता यह निश्चय है । इस कारण हे ज्ञानी ! तू कर्मोदयजनित उपभोगको भोग, परके अपराधसे उत्पन्न हुआ बंध यहाँ तेरे नहीं है । भावार्थ--वस्तुस्वभावको मेटनेके लिये कोई समर्थ नहीं है वस्तुस्वभाव वस्तुके अपने ही प्राचीन है, इस कारण ज्ञान हुए बाद उसे अज्ञानरूप करनेको कोई समर्थ नहीं है। इसी कारण ज्ञानीसे कहा गया है कि परके किये अपराधसे बंध तेरे नहीं है । उपभोग भोगनेसे बंध की शंका करेगा तो परदन्यसे बुरा होता है ऐसा मिथ्या माननेका प्रसंग पायेगा । वास्तवमें बंध अपने अपराधसे होता है । इस तरह स्वेच्छाचारिता मिटानेका व परद्रव्य से बुरा होता है ऐसो शंका मिटानेका उपदेश किया है। स्वेच्छाचारी व मिथ्याबुद्धि होना अज्ञानभाव है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानोके अध्यवसानोदयोंमें राग उत्पन्न नहीं होता । अब इन दो गाथाम्रोंमें सोदाहरण बतलाया है कि इसी कारण ज्ञानी कर्ममें पड़कर भी कर्मरजसे लिप्त नहीं होता, किन्तु अज्ञानी अध्यक्सानोदयोंमें राग होनेसे कर्मरजसे लिप्त हो जाता। तथ्यप्रकाश-१- निजको निज परको पर जान लेनेसे ज्ञानीको किसी भी परद्रव्यमें राग नहीं रहता। २- सर्व परद्रव्योंसे राग निवृत्त होनेका शील होनेसे ज्ञानी कर्मसे प्रलिप्त है। ३- ज्ञानीका कर्मविपाकवश कर्ममें पड़कर भी कर्मसे न लिपनेका स्वभाव है जैसे कि सुवर्णका कर्दममें पड़कर भी कर्दमसे न लिपनेका स्वभाव है । ४- अज्ञानी कर्ममें व कमरस में
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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