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________________ निर्जराधिकार एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमेत तदास्य ज्ञानं स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनः स्वापराधनिमित्तो बंधः ।। ज्ञानिन् कर्म न जातु कतु मुचितं किंचित्तथाप्युच्यते भुंक्ष्ये हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः । बंध: स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते ज्ञान सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्थापराधाद्ध्वं । अज्ञानता, यदा, तत्, एव, शंख, श्वेतस्वभाव, तक, कृष्णभाव, तदा, शुक्लत्व, तथा, ज्ञानिन्, अपि, खलु, यदा, ज्ञानस्वभाव, तक, अज्ञान, परिणत, तदा, अज्ञानता । मूलषात भुज-भोगे रुधादि, शक सामर्थ्य दिवादि, डुकृञ् करणे, णित्र प्रापणे तुदादि, प्र-ओहाक त्यागे जुहोत्यादि, गम्लु गतौ । पदविवरण- भुजतस्स भुजानस्य-षष्ठी एक० । वि अपि-अव्यय । विविहे विविधान्-द्वि० बहु० । सच्चित्ताचित्तमिस्सिए सचित्ताचित्तमिश्रितानि-द्वितीया बहु० । दवे द्रव्याणि-द्वितीया बहु० । संखस्य शंखस्य-षष्ठी एक० । करने वाले कर्ताको अपने फलके साथ जबरदस्तीसे तो लगता ही नहीं कि मेरे फलको तू भोग । कर्मफलका इच्छुक ही कर्मको करसा हुआ उस कर्मके फलको पाता है। इस कारण जो जीव उपयोगमें ज्ञानरूप हुमा, तथा जिसकी रागको रचना कर्ममें दूर हो गई है ऐसा मुनि कर्मके फलका परित्यागरूप एक स्वभाव होनेसे कर्मको करता हुमा भी कर्मसे नहीं बंधता भावार्थ-कर्म तो कर्ताको जबरदस्तीसे अपने फलके साथ जोड़ता ही नहीं, परंतु जो कर्मको करता हुआ उसके फलकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है। इस कारण जो ज्ञानी ज्ञानरूप होता हुमा कर्मफलपरित्यागरूप भावनासहित होकर कर्मके करनेमें राग न करे तथा उसके फल की आगामी इच्छा न करे वह मुनि कर्मोंसे नहीं बंधता । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्वकी दो गाथावोंमें बताया गया था कि परद्रव्यमें राग न करने वाला कर्मसे लिप्त नहीं होता और परद्रध्यमें राग करने वाला कर्मसे लिप्त हो जाता है । उसी विषय में यहाँ यह बताया गया है कि ऐसा रागमूल अज्ञानपना उपभोगसे नहीं होता किन्तु ज्ञानस्वभावको तजकर अज्ञान परिणमन करनेसे होता है। तथ्यप्रकाश-१-उपभोग्य परद्रव्य जीवका प्रज्ञानपना नहीं कर सकता। २-वियोगबुद्धिसे करना पड़ रहा उपभोग अज्ञानपना नहीं कर सकता। ३.शंखकीट द्वारा खाई जाने वाली मिट्टी श्वेत शंखदेहको काला नहीं कर सकती। -चारित्रमोहविपाकवश करना पड़ रहा उपभोग ज्ञानोको अज्ञानमय नहीं बना सकता । ५-भेदविज्ञान खो देनेपर विकारके लगाव के कारण प्रात्मा ज्ञानको छोड़कर प्रज्ञानरूपं परिणम जाता है। ६-भोगनेकी इच्छा होनेपर ___ "परद्रव्यके उपयोगसे बंध नहीं होता' ऐसी गप्प झाड़नेसे बन्ध नहीं रुकता है। सिद्धान्त-१-कोई द्रव्य अन्यके भावका कर्ता नहीं होता । २-ज्ञानभावको छोड़कर जीव स्वयं ही अज्ञानरूप परिणामता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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