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समयसार कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्वमेव नो योजयेत्. कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कमरणः । ज्ञान संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा, कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः ।। १५२।। ।। २२०-२२३ ।। सेदभाबो श्वेतभात्र---प्रथमा एक । ण न-अन्य ! बि अपि-अव्यय । सक्कदि शक्यते-वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मवाच्य क्रिया । किण्हगो कृष्णक:-प्रथमा एक० ! काउं कर्तु-कृदन्त प्रयोजनार्थे । तह तथा-अव्यय । गाणिस्स ज्ञानिनः-षष्ठी एक० । वि अपि-अव्यय । सच्चित्ताचिमिस्सिए सचित्ताचित्तमिश्रितानि-द्वि० बहु० । दब्बे द्रव्याणि-द्वितीया बहु० । भुंजतस्स भुजानस्य-षष्ठी एक० । वि अपिअव्यय । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक | ण न-अव्यय । सवकं शक्य-प्रथमा एक० । अण्णाणदं अज्ञानतां-द्वि० एकः। रगद नेतं कृदन्त प्रयोजनार्थ । जइया यदा-अन्यय । स स:-प्रथमा एक० ! एव-अध्यय । संखो शख:-प्रथमा एकवचन । सेद सहावं श्वेतस्वभाव-द्वितीया एक० । तयं तक-द्वितीया एकवचन । पहिण प्रहाय-असमाप्तिकी क्रिया । गच्छेन्ज गच्छेत्-विधिलिङ, अन्य पुरुष एकवचन । किण्हभावं कृष्ण भावंद्वितीया एकवचन । तइया तदा-अश्यय । सुक्कत्तणं शुक्लत्व-द्वि० ए० । पजहे प्रजह्यात्-लिह अन्य पुरुष एक क्रिया । तह तथा-अव्यय । णाणी ज्ञानी-प्र० ए० । णाणसहावं ज्ञानस्वभाव-वि० ए० । तयं तक-द्विक ए । पहिण प्रहाय-अव्यय । अण्णाणेण अज्ञानेन-तृ० ए० । परिणदो परिणत:-प्र० ए० । तइया तदाअव्यय । अण्णाणदं अज्ञानतां-द्वि ए० । गच्छेज्ज गच्छेत्-लिङ अन्य पुरुष एकवचन ।।२२०-२२३।।।
दृष्टि-१-प्रकर्तृत्वनय (१६०)। २-अशुद्धनिश्चयनय (४७)।
प्रयोग-वस्तुतः परद्रव्य का उपभोग किया ही नहीं जा सकता, मात्र मिथ्या विकल्प ही भोगा जा पाता यह तथ्य जानकर भोगनेको इच्छा छोड़कर जानानुभूतिका झानरूप पौरुष करना । २२०-२२३॥
अब पूर्वोक्त गाथार्थको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं:- [यथा] जैसे [इह] इस लोक में [कोपि पुरुषः] कोई पुरुष [वृतिनिमित्तं तु] आजीविकाके लिये [राजानं] राजाको [सेवते] सेवता है [तत्] तो [स राजापि] वह राजा भी उसको [सुखोत्पावकान] सुखके उपजाने वाले [विविधान्] अनेक प्रकारके [भोगान् ] भोगोंको [ददाति] देता है [एवमेव] इसी तरह [जीवपुरुषः] जीव नामक पुरुष [सुखनिमित्तं] सुखके लिये [कर्मरजः] कर्मरूपी रजको [सेयते] सेवता है [तत्] तो [सत्कर्म अपि] वह कर्म भी उसे [सुखोस्पादकान्] सुखके उपजाने वाले [विविधान् भोगान्] अनेक प्रकारके भोगोंको [ददाति] देता है [पुनः] पोर [यथा] जैसे [स एम पुरुषः] वही पुरुष [वृत्तिनिमित्तं] आजीविकाके लिये [राजानं] राजा को [न सेक्ते] नहीं सेवता है [नत/ तो [स राजा अपि] वह राजा भी उसे [सुखोत्पादकान] सुखके उपजाने वाले [विविधार] अनेक प्रकारके [भोगान] भोगोंको न ददाति नहीं देता है [एवमेव] इसी तरह [सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दृष्टि [विषयार्थ] विषयोंके लिये [कर्मरजः] कर्म