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________________ ३१२ समयसार कथं ज्ञानगुणपरिणामो बंधहेतुरिति चेत्-~ जम्हा दु जहण्णादो वाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। अण्णात्तं गाणगुणो तेण दुलो बंधगो भणिहो ।।१५७१।। चूकि यह ज्ञानगुण फिर, अघन्य अवबोधसे पुनः नाना । अन्यरूप परिणमता, सो माना ज्ञानको बन्धक ॥१७१।। यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते। अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बंधको भणितः ।। १७१ ॥ ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः, तावत् तस्यांतर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतयास्ति परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादबश्यंभाविरागसद्भावात बंधहेतुरेव स्यात् ॥१७१॥ नामसंज्ञ--ज, दु, जहण्ण, गाणगुण, पुणो, वि, अण्णत्त, गाणगुण, त, दु, त, बंधग, भणिद । धातु. संश-परि-णम प्रह्वत्वे, मण कथने । प्रातिपदिक-यत्, तु, जघन्य, ज्ञानगुण, पुनर्, अपि, अन्यत्व, ज्ञान, गुण, तत्, तु, तत्, बंधक, भणित । मूलधातु-परि-णम प्रखत्वे, भण शब्दार्थः । पदविवरण-जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । जहाणादो जघन्यात्-पं० एक०। णाणगुणादो ज्ञानगुणात्-पं० एक० । पुणो पुन:अव्यय । वि अपि-अव्यय । परिणमदि परिणमते-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अपणतं अन्यत्वंप्रथमा एक० । णाणगुणो ज्ञानगुण:-प्रथमा एकः । तेण तेन-तृतीया एक० । दुतु-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । बंधगो बंधक:-प्रथमा एक० । भपिदो भणित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। १७१ ।। होता है उसका कारण कोई ज्ञानगुणपरिणाम है । अब उसीके सम्बन्ध में जिज्ञासा हुई कि कैसे ज्ञानगुणपरिणाम बंधका कारण है ? इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है । ज्ञानगुणका यह जघन्यभाव चारित्रमोहके विपाकके निमित्तसे है। सय्यप्रकाश--(१) ज्ञानगुणका जघन्य परिणाम रागादि विकारभावोंसे परिणमनेके कारण होता है । (२) जब तक ज्ञानगुणका जघन्य परिणमन है तब तक वह मन्तमुहूर्त अन्तमुहूर्तमें विपरिणमन करता रहता है । (३) ज्ञानगुणका जघन्य भाव अन्तर्मुहूर्तविपरिणामी होनेसे अन्य-मन्यरूपले परिणाम होता है । (४) ज्ञानगुणका यह जघन्यभाव यथाख्यात चारित्रावस्थासे पहिले तक याने दशम गुणस्थान तक रहता है । (५) ज्ञानगुरणका जघन्यभाष प्रयश्यंभाविरागका सद्भाव होनेसे बन्धका कारण होता है । सिद्धान्त-(१) कषायसहित शानदशा जघन्यज्ञान कहलाता है । (२) ज्ञानका जघन्य भाव पोद्गलिककस्लिवका निमित्त कारण है। हि-१- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५)। २- निमित्तत्वदृष्टि (५३) । प्रयोग-ज्ञानगुणकी जघन्यता दूर करनेके लिये अविकार परिपूर्ण सहज ज्ञानस्वभाव में मातमत्व अनुभव करनेका सत्पुरुषार्थ करना ॥१७१॥
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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