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समयसार
कथं ज्ञानगुणपरिणामो बंधहेतुरिति चेत्-~
जम्हा दु जहण्णादो वाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। अण्णात्तं गाणगुणो तेण दुलो बंधगो भणिहो ।।१५७१।। चूकि यह ज्ञानगुण फिर, अघन्य अवबोधसे पुनः नाना ।
अन्यरूप परिणमता, सो माना ज्ञानको बन्धक ॥१७१।। यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते। अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बंधको भणितः ।। १७१ ॥
ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः, तावत् तस्यांतर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतयास्ति परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादबश्यंभाविरागसद्भावात बंधहेतुरेव स्यात् ॥१७१॥
नामसंज्ञ--ज, दु, जहण्ण, गाणगुण, पुणो, वि, अण्णत्त, गाणगुण, त, दु, त, बंधग, भणिद । धातु. संश-परि-णम प्रह्वत्वे, मण कथने । प्रातिपदिक-यत्, तु, जघन्य, ज्ञानगुण, पुनर्, अपि, अन्यत्व, ज्ञान, गुण, तत्, तु, तत्, बंधक, भणित । मूलधातु-परि-णम प्रखत्वे, भण शब्दार्थः । पदविवरण-जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । जहाणादो जघन्यात्-पं० एक०। णाणगुणादो ज्ञानगुणात्-पं० एक० । पुणो पुन:अव्यय । वि अपि-अव्यय । परिणमदि परिणमते-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अपणतं अन्यत्वंप्रथमा एक० । णाणगुणो ज्ञानगुण:-प्रथमा एकः । तेण तेन-तृतीया एक० । दुतु-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । बंधगो बंधक:-प्रथमा एक० । भपिदो भणित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। १७१ ।। होता है उसका कारण कोई ज्ञानगुणपरिणाम है । अब उसीके सम्बन्ध में जिज्ञासा हुई कि कैसे ज्ञानगुणपरिणाम बंधका कारण है ? इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है । ज्ञानगुणका यह जघन्यभाव चारित्रमोहके विपाकके निमित्तसे है।
सय्यप्रकाश--(१) ज्ञानगुणका जघन्य परिणाम रागादि विकारभावोंसे परिणमनेके कारण होता है । (२) जब तक ज्ञानगुणका जघन्य परिणमन है तब तक वह मन्तमुहूर्त अन्तमुहूर्तमें विपरिणमन करता रहता है । (३) ज्ञानगुणका जघन्य भाव अन्तर्मुहूर्तविपरिणामी होनेसे अन्य-मन्यरूपले परिणाम होता है । (४) ज्ञानगुणका यह जघन्यभाव यथाख्यात चारित्रावस्थासे पहिले तक याने दशम गुणस्थान तक रहता है । (५) ज्ञानगुरणका जघन्यभाष प्रयश्यंभाविरागका सद्भाव होनेसे बन्धका कारण होता है ।
सिद्धान्त-(१) कषायसहित शानदशा जघन्यज्ञान कहलाता है । (२) ज्ञानका जघन्य भाव पोद्गलिककस्लिवका निमित्त कारण है।
हि-१- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५)। २- निमित्तत्वदृष्टि (५३) ।
प्रयोग-ज्ञानगुणकी जघन्यता दूर करनेके लिये अविकार परिपूर्ण सहज ज्ञानस्वभाव में मातमत्व अनुभव करनेका सत्पुरुषार्थ करना ॥१७१॥