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________________ ३११ वाधिकार समयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म प्रतिबध्नंति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एवं हेतुः ॥ १७० ॥ 1 1 सूतोवा बहुवचन । ज्ञानदर्शनगुणाभ्यां तृतीया द्विवचन । समये समये - सप्तमी एकवचन । जम्हा यस्मात्पंचमी एक । तेन ते एक अधः-द्रमा एक० इति इति-अव्यय । णाणी ज्ञानी --प्रथमा एक० । दु तु अव्यय ॥ १७० ॥ बुद्धिपूर्वक रागका याने रागमें रागका प्रभाव होनेसे मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियों का प्राखव न होनेसे निरालव कहा गया है । ५ विवेकपूर्वक पौरुष प्रयत्न करनेके प्रसंग में बुद्धिपूर्वक वृत्तियों का निरीक्षण करके वर्णन होता है । सिद्धान्त - १ - ज्ञानीके शुद्ध ज्ञायकस्वरूपकी भावना होनेसे प्रास्रवभाव भावनानिमित्तक पुद्गलकमका ग्रात्रव निवृत्त हो जाता है । २- ज्ञान होनेपर भी जब तक क्षोभ विकार उठता रहता है तब तक क्षोभनिमित्तक (साधारण) श्रालय होता रहता है । दृष्टि-१ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय ( २४ब ) | २ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक नय (२४) 1 प्रयोग - बन्धनिवृत्ति के लिये रागादिविकारोंको परभाव जान उनसे उपेक्षा करके अविकार ज्ञानस्वरूपमें आत्मत्वका अनुभव करनेका अन्तः पौरुष करना ॥ १७० ॥ अब पूछते हैं कि ज्ञानगुणका परिणाम बंधका कारण कैसे हैं, उसका उत्तर गाथामें कहते हैं - [ पुनरपि ] फिर भी [ यस्मात् तु] जिस कारण [ ज्ञानगुणः ] ज्ञानगुण [जघन्यात्ज्ञानगुणात् ] जघन्य ज्ञानगुणके कारण [ अन्यत्वं ] अन्य रूप [ परिणमते ] परिणमन करता है [ तेन तु ] इसी कारण [स] वह ज्ञानगुण [अंधको भणितः ] कर्मका बंधन कहा गया है । तात्पर्य - निर्मोह ज्ञानोके भी श्रवशिष्ट रामवश हुए ज्ञानगुणके जघन्यपरिणमन से बंध दशम गुणस्थान तक होता है । टीकार्थं - ज्ञानगुणका जब तक जघन्य भाव है याने क्षयोपशमरूप भाव है, तब तक ज्ञान अंतमुहूर्त विपरिणामी होनेसे बार बार अन्य प्रकार परिणमन करता है। सो वह यथाख्यात चारित्र अवस्थासे नीचे अवश्यंभावी राजका सद्भाव होनेसे बंधका कारण हो है । भावार्थ - क्षायोपशमिकज्ञान एक शेयके ऊपर अंतर्मुहूर्त हो रह पाता है, तदनंतर ग्रन्य ज्ञेयका अवलंबन करता है। इस कारण स्वरूपमें भी अंतमुहूर्त ही ज्ञानका ठहरना हो सकता है । श्रतः सम्यग्दृष्टि चाहे अप्रमत्तदशामें भी हो, उसके जब तक यथाख्यात चारित्र अवस्था नहीं हुई है तब तक अवश्य राग सद्भाव है, और उस रागके सद्भावसे बंध भी होता है । इस कारण ज्ञान गुणका जघन्य भाव बंधका कारण प्रसंगविवरण - धनन्तरपूर्व गाथामें कहा था कि कहा गया है 1. ज्ञानीके जो कुछ भी जहाँ भाव 24
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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