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________________ समयसार कथं ज्ञानी निरास्त्रवः ? इति चेत-- चहुविह अगणेयमेयं बंधते गागादंसगागुणेटिं। समये समये जमा तेण अबंधोत्ति पाणी दु ॥१७०॥ क्योंकि चारों हि आस्रव, दर्शनज्ञानगुणको विपरिणतिसे । बांधते कर्म नाना, होता ज्ञानी अतः प्रबन्धक ॥ १७० ॥ चतुविधा अनेकभेदं बध्नति ज्ञानदर्शनगुणाभ्यां । समये समये यस्मात् तेनाबंध इसि ज्ञानी तु ॥ १७० ।। ज्ञानी हि तावदास्रवभावभावनाभिप्रायाभावाग्निरासव एव । यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः मामसंज्ञ-बहुविह, अणेयभेय, णागदसणगुण, समय, समय, ज, त, अबंध, इत्ति, पाणि, दु । धातु- । संज्ञ--बंध बंधने, दंस दर्शनायां द्वितीयगणी। प्रातिपदिक-चतुर्विध, अनेकभेद, ज्ञानदर्शनगुण, समय, । समय, यत्, तत्, अबंध, इति. ज्ञानिन्, तु । पद विवरण-चहुविह चतुर्विधा:-प्रथमा बहु० । अणेयभेयं अने- । कभेद-द्वितीया एकवचन । बंधते बध्नन्ति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । णाणदसणगुणे हि.. अनेक भेदके कर्मोको [बन्नति बांधते हैं [तेन] इस कारण [झानी तु] ज्ञानी तो [प्रबंधः प्रबंधरूप है [इति] ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य--बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोह न होनेसे ज्ञानीको प्रबंधक कहा गया है। टीकार्थ- ज्ञानी तो प्रास्रवभावकी भावनाके अभिप्रायके प्रभावसे निराक ही है, किन्तु उस ज्ञानीके भी द्रव्यानव प्रति समय अनेक प्रकारके पुद्गलकर्मको बाँधता है, सो उसमें ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है । भावार्थ-अज्ञानमय प्रास्रवभाव न होनेसे जानीके मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियोंका आस्रव तो होता ही नहीं है, और जो कर्म अब भी बंध रहे हैं सो चारित्रकी निर्बलतासे दे रहे हैं । उसमें निमित्त चारित्रमोहनीयका उदय है । वहाँ भी विका. रभावमें राग नहीं है मो साधारण प्रास्रव है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शानोके द्रव्यानवका भी प्रभाव है। इस कथनपर यह जिज्ञासा हुई कि ज्ञानी होनेपर भी प्रागममें दशम गुणस्थान तक बन्ध कहा गया है फिर यहाँ यह कैसे कहा गया कि ज्ञानीके द्रव्यानवका प्रभाव है । इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथासे प्रारंभ किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-मास्रवभागोंको भावना (लगाव) का अभिप्राय न होनेसे ज्ञानीको निरास्रव कहा गया है । २-ज्ञानी होनेपर भी द्रव्यप्रत्ययोंके निमित्तसे कुछ प्रकृतियोंका पासव दशम गुणस्थान तक होता रहता, उसमें प्रास्रवभाव भावनाका अभिप्राय कारण नहीं है, उसमें ज्ञानगुणका जघन्य परिणाम अथवा क्षोभ कारण है । ३-जहां रंच भी अव्यक्त भी क्षोभ महीं है वहाँ साम्पारायिक पात्रय नहीं, किन्तु योग रहने तक ईर्यापथ प्रास्त्रव है। ४-यहाँ
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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