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शिक्षिका
३०९ एव कार्मणशरीरेणव संबद्धा न तु जीवेन, अतः स्वभावसिद्ध एवं द्रव्याखवाभावो ज्ञानिनः । भावाञवाभावमयं प्रपत्रो द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः । ज्ञानी सदा ज्ञानमयंकभावो निरास्त्रको ज्ञायक एक एव ॥११५।। ।। १६९ ॥ पिंडसमाणा पृथ्वीपिण्डसमाना:-प्रथमा बहु० । पुबणिबद्धा पूर्वनिबद्धाः-प्र० बहु० । दुतु-अव्यय । पच्चया प्रत्यय:-प्र० बहु० । तस्स तस्य-षष्ठी एक कम्मसरीरेण कर्मशरीरेण-तृतीया एक० । दूतू-अव्यय । बद्धा बद्धाः-१० बहु0 1 सब्जे सर्वे-प्र० बहु० । पि अपि-अव्यय । णाणिस्स ज्ञानिन:-षष्ठी एक० ।।१६६।।
प्रसंगवियररग--अनन्तरपूर्व गाथामें रागाद्यसंकीर्णभावका सम्भव बताकर ज्ञानीके भावासवाभावका अविनाभावी द्रव्याखवभाव बतलाया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) अज्ञान द्वारा पहिले जो कर्म बंध गये थे उनमें से जो भी ज्ञानी पुरुषके सत्तामें रह रहे वे अचेतन पुद्गलपरिणाम पृथ्वीपिंडके समान पड़े हुए हैं । (२) सत्तामें पड़े हुए पुद्गलकर्म अपना प्रभाव (अनुभागोदय) नहीं कर रहे । (३) जब सत्तामें पड़े हुए कर्म उदयमें पाते हैं तब ज्ञानीके ज्ञानस्वभाबमें लगाव होनेसे संसारस्थितिबंध नहीं कर पाते है । (४) कर्मप्रकृतियाँ कार्माण शरीरसे ही बंधी हुई होती हैं । (५) जीव प्रमुर्तिक है उसके साथ मूर्त पुद्गलकर्म नहीं बंधे हैं, किन्तु कर्मफलका याने विभावका लगाव होनेसे अज्ञानीके निमित्तनैमित्तिक विधिमें पुद्गलकमका एकक्षेत्रावगाह बन्धन बना है। (६) पुद्गलकर्मका एकक्षेत्रावगाह स्थिति अनुभाग वाला बंधन, ज्ञान होनेपर भी राम रहने तक होता है । (७) बीतराम शानीके नवीन कर्मबंधन नहीं होता, मात्र योग रहने तक ईर्यापथ पालव होता है। (८) कर्मका बन्धन कार्माणशरीरसे है। (१) जीवका उपयोग ज्ञानस्वभावके अभिमुख है, इस दृष्टिसे ज्ञानी के द्रव्यास्लवका अभाव है । (१०) सूक्ष्मदृष्टिसे द्रव्यानवका प्रभाव गुणस्थानानुसार जानना ।
सिद्धान्त-(१) कमंत्वका अभ्युदय कार्माणवर्गणावोंमें हुआ है । (२) वस्तुतः कर्म का बन्धन कार्माणशरोरसे होता है। (३) कर्मका बन्धन जीवके साथ होता है यह कथन फलित कथन है।
दृष्टि---१, २-- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। ३- एकजातिद्रव्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक प्रसद्भूतव्यवहार (१०६)।
प्रयोग--कर्मको कार्मारणशरीरसे बंधा हुआ जानकर उनसे भिन्न अपनेको ज्ञानमात्र निरखकर अपने में उपयुक्त होकर परमविश्राम पानेका पौरुष करना ।।१६६।।
अब पूछते हैं कि ज्ञानी निरास्रव किस तरह है ? उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं[यस्मात्] जिस कारण [चतुविधाः] चार प्रकारके प्रास्रव याने मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय व योग [शानदर्शनगुणाभ्यां] ज्ञान दर्शन गुणोंके द्वारा [समये समये] समय-समयपर [अनेकमेवं]