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कर्तृकर्माधिकार सतोऽनादिनिधनानवरतस्वदमाननिखिलरसांतरविविक्तात्यंतमधुरचैतन्य फरसोऽयमात्मा भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्व विकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति । सतोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं न पुनः कृतकोऽनेक: क्रोधादिरपीति कोधोहमित्यादिविकल्पमात्मनो मनागपि न करोति तत: समस्तमपि कर्तुत्वमपास्यति । ततो नित्यमेवोदासीनावस्यो जानन एवास्ते । ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानधनो भूतोऽल्यंतमकर्ता प्रतिभाति । अज्ञानतस्तु सतृणाम्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः । पोरुवा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या मां दोग्घि दुग्धमिव नूनमसौ रसाला ।। ५७।। अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावति पातुं मृगा, एतत्, तु, तत्, कर्तृ, आत्मन्, निश्चयषिद्, परिकषित, एवं, खस्नु, यत्, तत्, सर्वकर्तृत्व । मूलधातु- डुकृत्र कारपे, अत सातत्यगमने, निस्-चित्र चयने, विद शाने श्रदादि, परि-कप वाक्यप्रबंधे चुरादि, ज्ञा अवबोधने, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष अपना और पुद्गलकर्मविपाकका भेद न जानकर रागादि भावमें एकाकाररूपसे प्रवृत्त होता है और इसी चोटसे विषयोंमें स्वाद जानकर पुदगलकमको अतिलुब्ध होकर ग्रहण करता है, अपने ज्ञानका और पुद्गलकर्मका स्वाद पृथक् नहीं अनुभव करता ! वह हाथोकी भांति घासमें मिले हुए मिष्ट अन्नका एक स्वाद लेता है।
अब कहते हैं कि अज्ञानसे ही जीव पुद्गलकर्मका कर्ता होता है-प्रमानान्मृग इत्यादि । अर्थ-ये जीव निश्चयसे शुद्ध एक शानमय हैं, तो भी वे प्रशानके कारण पानसे सरंगित समुद्रकी भांति विकल्पसमूहके करनेसे व्याकुल होकर परम्पके कर्तारूप होते है। देखो प्रज्ञानसे ही मृग बालूको जल जानकर पीनेको दोड़ते हैं और देखो पानसे हो लोक अंधकारमें रस्सीमें सका निश्चय कर भयसे भागते हैं ।
भावार्थ---प्रज्ञानसे क्या नहीं होता ? मृग तो बालूको जल जानकर पीनेको दोलता है और खेद-खिन्न होता है, मनुष्य लोक अंधेरेमें रस्सीको सर्प मान डरकर भागते हैं, उसी प्रकार यह प्रात्मा, जैसे वायुसे समुद्र क्षोभरूप हो जाता है, वैसे प्रशानसे अनेक विकल्पोंसे क्षोमरूप होता है । सो ऐसे हो. देखिये-- यद्यपि प्रात्मा परमार्षसे सुद्ध मानधन है तो भी प्रशानसे का होता है।
अब कहते हैं कि ज्ञान होनेपर यह जीव कर्ता नहीं होता-जाना इत्यादि । अर्थसो पुरुष ज्ञानसे भेदज्ञानको कला द्वारा परको तथा प्रात्माका विशेष मेद जानता है, वह पुरुष दूध जल मिले हुएको भेदकर दूध ग्रहण करने वाले हंसकी तरह है, अचल चैतन्यधातुको सदा माश्रय करता हुआ जानता ही है, और कुछ भी नहीं करता । मावार्थ --जो निजको निज बपरको पर जानता है, वह ज्ञाता हो है, कर्ता नहीं है।
अब बताते हैं कि जो कुछ जाना जाता है, वह ज्ञानसे ही जाना जाता है ---शामायण