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________________ २०२ समयसार ततः स्थितमेतद् ज्ञानानश्यति कर्तृत्वं--- एदेण दु सो कत्ता यादा णिच्छयविदूहि परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुचदि सव्वकत्तित्तं ॥१७॥ इस प्रात्माको कर्ता, होना अज्ञानमें बताया है । ऐसा हि जानता जो, वह सब कर्तृत्वको तजता ॥६॥ एतेन तु स कत्मिा निश्चयविद्भिः परिकथितः । एवं खलु यो जानाति स मुंचति सर्व कर्तृत्वं ||१७|| येनायमज्ञानापरात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति । यस्त्वं जानाति स समस्तं वतृत्वभुत्सृजति, ततः स खल्बकर्ता प्रतिभाति । तथाहिइहायमात्मा किल ज्ञानी सन्नज्ञानादासंसारप्रमिद्धेन मिलितस्त्रादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात् ततः परात्मानावेकरवेन जानाति ततः क्रोधोहमित्यादिविकल्पमात्मनः करोति ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो बारम्बारमनेकविकल्पः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति । ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिद्ध्यता प्रत्येक स्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिः स्यात् । नामसंज्ञ-एत, दु, कत्तार, अत्त, पिछयचिदु, परिकहिद, एवं, खलु, ज, जाण अवोधने, त, सव्वकत्तित्त । धातुसंज्ञ-विद झाने, परि-कह वाक्य प्रबन्धे, जाण अवबोधने, मुंच त्यागे। प्रकृतिशय--- जानता है । इसलिए प्रकृत्रिम, नित्य, एक ज्ञान ही मैं हूं और कृत्रिम, अनित्य, अनेक जो ये क्रोधादिक हैं, वे मैं नहीं हैं ऐसा जाने तब क्रोधादिक मैं हं' इत्यादिक विकल्प अपनेमें किषिमात्र भी नहीं करता । इस कारण समस्त ही कर्तृत्वको छोड़ता हुआ सदा ही उदासीन वीत. राम अवस्था स्वरूप होकर ज्ञायक ही रहता है, इसीलिए निर्विकल्पस्वरूप प्रकृत्रिम नित्य कए विज्ञानधन हुअा अत्यन्त प्रकर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ-यदि कोई परद्रव्यके भावोंके अपने कर्तृत्वको प्रज्ञान जान ले सब पाप विकल्पमें भी उसका कर्ता क्यों बने ? मज्ञानी रहना हो तो परद्रव्यूका कर्ता बने । इसलिए ज्ञान होनेके बाद परद्रध्यका कर्तृत्व नहीं रहता। अब इसी अर्थका कलशरूप काथ्य कहते हैं--अज्ञान इत्यादि । अर्थ- जो पुरुष निश्चयसे स्वयं ज्ञानस्वरूप हुआ भी अज्ञानसे तृप सहित मिले हुये अन्नादिक सुन्दर श्राहारको खाने वाले हस्ती प्रादि तिर्यञ्चके समान होता है, वह शिस्वरिनी (श्रीखण्ड) को पीकर उसके दही मीठेके मिले हुए खट्टे मीठे रसकी प्रत्यन्त इसछासे उसके रसभेदको न जानकर दूध के लिये गायको दुहता है। भावार्थ-जैसे कोई पुरुष शिखरिनको पीकर उसके स्वादको प्रतिइच्छासे रसके ज्ञान बिना ऐसा जानता है कि यह गायके दूधमें स्वाद है, अत: प्रतिलुन्ध हुआ गायको दुहता है,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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