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________________ समयसार अज्ञानात्तमसि द्रवति भुजगाध्यासेन रज्जो जनाः । प्रज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरंगान्धिवत, शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कीभवत्याकुलाः ॥५८॥ ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोयों, जानाति हंस इव वापयसोविशेषं । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानाति एम. हि करोति न किंघनापि ॥५६॥ ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था, ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदमुछ्नु मोक्षणे तुदादि । पदविवरण-एतेन-तृतीया एक० । तु-अव्यय । सः-प्रथमा एक० । कर्ता-प्रथमा एक० । आत्मा-प्रथमा एक० । निश्चयविद्भिः-भृतीया बहु० कर्मवाच्ये कर्ता । एवं-अव्यय । खलु-अव्यय । इत्यादि । अर्थ-जैसे अग्नि और जलकी उष्णता सौर शीतलताको व्यवस्था ज्ञानसे ही जानी जाती है; लवण तथा व्यंजनके स्वादका भेद ज्ञानसे ही जाना जाता है । उसी प्रकार अपने रस से विकासरूप हुआ जो नित्य चैतन्यधातु उसका तथा क्रोधादिक भावोंका भेद भी ज्ञानसे ही जाना जाता है । म गैह कर्तृको मनमो दूर नासा हुमा प्रकट होता है । ___अब कहते हैं कि आत्मा अपने भावका ही कर्ता है....प्रज्ञानं इत्यादि । अर्थ—इस प्रकार प्रज्ञानरूप तथा ज्ञानरूप भी प्रात्माको ही करता हुमा आत्मा प्रकट रूपसे अपने हो। भावका कर्ता है, वह परभावका कर्ता तो कभी नहीं है। अब पामेको गाथाको सूचनिकारूप श्लोक कहते हैं- प्रात्मा इत्यादि । अर्थ-प्रारमा ज्ञानस्वरूप है, वह स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञानसे अन्य किसको करता है ? किसीको नहीं करता । तब परभावका कर्ता प्रात्मा है ऐसा मानना तथा कहना व्यवहारी जीवोंका मोह (अज्ञान) है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि यह निर्णय हुधा कि अज्ञानसे कर्मका प्रभव होता है । अब यहां यह निर्णय इस गाथामें दिया है कि ज्ञानसे कर्तृत्व नष्ट हो. जाता है। सभ्यप्रकाश–१- पर और प्रात्माका एकत्व नहीं है, किन्तु प्राणी अज्ञानसे पर व प्रात्माके एकत्यका विकल्प करता है, इसीसे प्रात्मा कर्ता कहलाता है । २- जो अज्ञानसे होने वाले विकल्प कर्तृत्वके तथ्यको जानता है वह ज्ञानी है, वह कर्तृत्वको छोड़ देता है । ३-पर पौर प्रात्माको एकमेक जाननेका कारण ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका स्वाद लेनेसे भेदज्ञानकी शक्तिका मुद्रित हो जाना है । ४--पर पोर पात्माको एफरूपसे जाननेके कारण अज्ञानी जीव "मैं क्रोध हूं" इत्यादिरूप प्रात्मविकल्प करता है। ५- विकारोंमें प्रात्मविकल्प करनेसे निर्विकल्प विज्ञानधन स्वरूपसे भ्रट होता हुआ यह प्रशानी बारबार अनेक विकल्पोंसे परिणमता हुआ का कहा जाता है। - स्वभाष परभावका भेद मानने वाला ज्ञानी परतस्वसे भिन्न अपना स्वादभेदसंवेदन शक्तिवाला होता है । ७-मैं तो एक चैतन्यरस हूं, कषायें भिन्नरस हैं, भेद. शानमें ऐसा स्पष्ट ज्ञान रहता है। ८-- सहजसिद्ध ज्ञानमात्र अपनेको स्वीकारने वाला तथा
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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