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कर्तृकर्माधिकार
२०५ व्युदासः । ज्ञानादेव स्वरसविक्रसन्नित्यचैतन्यधातोः, क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिंदती कनभावं ।।६०। प्रज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमंजसा । स्यातकर्तात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ॥६१॥ प्रात्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किं । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिगा ।।६२॥ ॥१७॥
...."-." य:-प्रथमा एक० | जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० | मुंचति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सर्वकर्तृत्व-द्वितीया एकवचन ।। ६७।। अपने में कृतक अनेक विकाररूपोंको निषेधने वाला ज्ञानी क्रोधादिरूप प्रात्मविकल्पको रंच भी नहीं करता है अतः वह अकर्ता है । ६-- आत्मा स्वयं ज्ञानमात्र है, वह भान सिवाय अन्य कुछ नहीं करता है।
सिद्धान्त-१-समस्त परद्रव्यों व परभावोंसे विविक्त यह आत्मा चैतन्यकरस है। २-अविकार सहजज्ञानस्वभावके आश्रयसे समस्त कर्मतब कलंक दूर हो जाता है।
दृष्टि----१-परमशुद्धनिश्चयनय (४४)। २-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यायिकनय (२४ब)।
प्रयोग-चैतन्य रसमात्र आत्मामें स्थपरके प्रज्ञानसे ही परात्म विकल्प होता है ऐसा जानकर अपने प्रकर्तृ स्वभाव चैतन्यस्वरूपमें रत होकर निराकुल होना चाहिये ।।६७॥
अब यही कहते हैं कि व्यवहारी ऐसा कहते हैं:-[प्रात्मा] प्रात्मा [व्यवहारेरण] व्यवहारसे [घटपटरथान द्रव्याणि] बट पट रथ इन वस्तुओंको [च और [करणानि] इंद्रियादिक करणपदार्योंको [च] और [कर्माणि] ज्ञानावरणादिक तथा क्रोधादिक द्रव्यकर्म, भावकोंको [घ इह] तथा इस लोकमें [विविधानि] अनेक प्रकारके [नोकर्माणि] शरीरादि नोकोको [करोति] करता है।
तात्पर्य—व्यवहारसे ही यह कहा जाता है कि जीव परद्रव्य व परभावको करता है ।
टोकार्थ-जिस कारण व्यवहारी जीवोंको यह प्रात्मा अपने विकल्प और व्यापार इन दोनोंके द्वारा घट प्रादि परद्रव्य स्वरूप बाहकमको करता हुमा प्रतिभासित होता है, इस कारण उसी प्रकार क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप समस्त अंतरंग कर्मको भी करता है। क्योंकि दोनों परद्रव्यस्वरूप हैं, परत्वको दृष्टिसे इनमें भेद नहीं । सो यह व्यवहारी जीयोंका अज्ञान है । भावार्थ- घट पट कर्म नोकर्म प्रादि परद्रव्योंका कर्ता अपनेको मानना यह तो व्यवहारी जनों का अज्ञान है।
प्रसंगविवरण-~अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि निश्चयसे यह प्रात्मा जानता हो है, परद्रव्यको व परभावको करता नहीं है । इस विवरणपर यह जिज्ञासा होती है कि घट