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स्वात् । यानि कषायविपाकानुद्रकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद् गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि चारित्रमोहविक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयम लब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभितत्वात् । यानि पर्याप्ता पर्याप्तवाद र सूक्ष्मै केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्य संज्ञिपंचेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्ट्य संयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्त संयता पूर्वकरगोपशमकक्षपकानिवृत्तिवादरसपियोपशमकक्षपक सूक्ष्म सौपरायोपशमकक्षपको शांत कषायक्षीणकषाय सयोग के बल्य योग केवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । वर्णाद्या वा राममोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवांतस्तत्यतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युद्धं ष्टमेकं परं स्यात् ||३७|| ।।५०-५१ - ५२-५३-५४-५५॥
जीवाजीवाधिकार
कानिचित् नो स्थितिबन्धस्थानानि प्रथमा बहु० । जीवस्य षष्ठी एक० । न, संक्लेशस्थानानि - प्रथमा बहु०, न, एव विशुद्धिस्थानानि प्र० ब० । नो, संयमलब्धिस्थानानि - प्र० ब० । न, नो, एव, च, जीवस्थानानि - प्र० ब० 1 न, गुणस्थानानि प्र० बहु० । वा, संति, जीवस्य येन-तृतीया एक० हेत्वर्थे तु एते सर्व प्र० ब० । पुद्गल द्रव्यस्य षष्ठी एक० । परिणामाः प्रथमा बहुवचन ।। ५०-५१-५२-५३-५४-५५ ।। रागादिक पुरुषसे भिन्न ही हैं । (वर्णको आदि लेकर गुणस्थानपर्यंत भावोंका स्वरूप विशेषतया यदि जानना हो तो गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये ) |
प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि आत्मा चेतनागुणभय है, चिच्छक्तिव्यात सर्वस्वसार है और इससे अतिरिक्त भाव सब पौगलिक हैं । सो इसी विषयको निषेधविवरण के साथ इन छह गाथाओं में कहा जा रहा है ।
तथ्यप्रकाश--- ( १ ) चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य भावोंमें कुछ भाव तो ऐसे हैं जो पुद्गलके हो परिणमन हैं, इस कारण वे अन्य भाव पौद्गलिक हैं । (२) चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य भावों में कुछ भाव ऐसे हैं जो कर्मपुद्गल विपाकके प्रतिफलन हैं, इस कारण वे अन्य भाव पौद्गलिक हैं । ( ३ ) चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य भावों में कुछ भाव ऐसे हैं जो पुद्गलकर्मदशाका निमित्त पाकर श्रात्मा के गुणोंके विकृत परिणमन हैं, इस कारण वे अन्य भाव भी पौद्गलिक कहे गये हैं । ( ४ ) समस्त अन्य भावोंसे प्रात्माभिभव न होने देनेका तथा अन्य भावोंके दूर होनेका तथा ग्रन्थ भावके कारणोंके दूर हो जानेका साधन केवल निज सहज अन्तस्तस्वका दर्शन है ।
सिद्धान्त --- ( १ ) पुद्गलद्रव्यके परिणमनोंका आत्मामें नास्तित्व है । ( २ ) पुद्गलकर्मविपाके सानिध्य में उपयोग में वह विपाक प्रतिफलित होता है । ( ३ ) श्रात्मा के शुद्ध ज्ञायक