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समयंसार
यानि प्रतिबिशिष्ट प्रकृतिपरिणामलक्षणानि बन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुन गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि स्वफलसंपादनसमर्थकर्मावस्थालक्षणान्युदय. स्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि मतीन्द्रिय काययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनले श्याभव्यसम्यक्त्वसंशाहारलक्षणानि भागणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि तविशिष्टप्रकृतिकालांतरसहत्वलक्षणानि स्थितिबंवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुमयपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थांनानिमानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्ननो, अध्यात्मस्थानानि-प्रथमा बहु० । न, एव. च, अनुभागस्थानानि-प्र० बहु । जीवस्य-षष्ठी एक० । न, सन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । कानिचित्, योगस्थानानि-प्रथमा बहु० । न, बन्धस्थानानिप्रथमा बहु० । वा-अव्यय । न, एव, च, उदयस्थानानि-प्रथमा बहु० । न, मार्गणास्थानानि-प्रथमा बहु । ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और पाहार जिनका स्वरूप है, ऐसे मार्गणास्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि...। २३ । भिन्न-भिन्न बिशेषोंको लिये प्रकृतियोंका कालान्तरमें साथ रहना जिनका लक्षण है, ऐसे स्थितिबंधके स्थान भी जीवके नहीं है, क्योंकि "। २४ । कषायके विपाककी उत्कृष्टता जिनका लक्षण है, ऐसे संक्लेशस्थान भी जीव के नहीं हैं, क्योंकि । २५ । कषायके विपाककी मंदता जिनका लक्षण है, ऐसे विशुद्धिस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि....। २६ । चारित्रमोहके उदयकी क्रमसे निवृत्ति जिनका लक्षण है, ऐसे संयमलब्धिस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि..."। २७ । पर्याप्त, अपर्याप्त, दादर, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी प्रसंज्ञी, पञ्चेन्द्रिय जिनका लक्षण है, ऐसे जीवस्यान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि..."। २८ । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सभ्यम्मिश्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, प्रपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष:सांपराय, उपशांतमोह, क्षोणमोह, सयोगकेवली और प्रयोगकेवली जिनका लक्षण है, ऐसे सब गुणस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि०"। २६ । इस प्रकार ये सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं वे सब जीवके नहीं हैं । जीव तो परमार्थसे चैतन्यशक्तिमात्र है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं.---'वांद्या' इत्यादि । अर्थ-वर्णादिक अथवा राग मोहादिक उक्त सभी भाव इस पुरुष (प्रात्मा) से भिन्न है, इसी कारण अन्तः परमार्थतः देखने वालेको ये सब नहीं दीखते केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेद प्रात्मा ही दीखता है । भावार्थ-~-परमार्थनय अभेदरूप है, इसलिये उस दृष्टिसे देखनेपर भेद नहीं दीखता, उस नयकी दृष्टि में चैतन्यमात्र पुरुष (आत्मा) ही दीखता है, इस कारण वे वर्णादिक तथा