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समयसार प्रतिपादनात शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रभिदमधीत्य विश्वप्रकाशनसमर्थपरमार्थभूतचित्प्रकाशरूपं परमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णे विज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वाग्भेमा स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षणविज़म्भमाणविदेकरसअसमाप्तिको क्रिया । अत्थतच्चदो अर्थतत्त्वतः-पंचम्यर्थे तद्धितप्रत्ययन्त अव्यय । णाचं ज्ञात्वा-असमाप्तिकी क्रिया । अत्थे अर्थ-सप्तमी एक० । ठाही स्थास्यति-भविष्यति लुट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । चेया परमानन्दमय स्वात्मीक, स्वाधीन, बांधारहित (अविनाशी) उत्तम सुखको प्राप्त करेगा । इसलिए हे भव्य पुरुषो! अपने कल्याणके लिए इसको पढ़ो, सुनो, निरन्तर इसीका ध्यान रखो, जिससे कि अविनाशी सुखकी प्राप्ति होवे ।
अब इस सर्वविशुद्ध ज्ञान के अधिकारको पूर्णताका वचन इस कलशरूप श्लोकमें कहते हैं--इतीदं इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार यह प्रात्माका तत्त्व प्रखण्ड, एक, प्रचल, स्वसम्वेद्य, प्रबाधित ज्ञानमात्र ही अवस्थित होता है । भावार्थ-ज्ञानार्थ प्रात्माका निजस्वरूप ज्ञान हो कहा है । यद्यपि प्रात्मामें अनन्त धर्म हैं तथापि उनमें कोई तो साधारण हैं सो वे अतिव्याप्ति स्वरूप है, उनसे प्रात्मा पहचाना नहीं जाता तथा कोई पर्यायाश्रित हैं किसी प्रवस्थामें होते हैं, किसी में नहीं हैं इसलिए वे अन्याप्तिस्वरूप हैं, उनसे भी प्रात्मा नहीं पहचाना जाता। तथा चैतन्य यद्यपि शाश्वत लक्षण है तो भी शक्तिमात्र है, प्रतः वह अदृश्य है, हाँ उसका व्यक्त रूप दर्शन और ज्ञान है। उनमें से ज्ञान साकार है, प्रगट अनुभवगोचर है; इसी कारण ज्ञानके द्वारा ही आत्मा पहचाना जाता है। प्रतएव इस ज्ञानको ही प्रधान करके आत्मतत्त्व कहा गया है । यहाँ ऐसा नहीं समझना कि जो प्रात्माको ज्ञानमात्र तत्त्व कहा है सो इतना ही परमार्थ है, अन्य गुण भूठे हैं, आत्मामें नहीं हैं। तथा ऐसा भी न समझना कि वे सब गुण स्वतन्त्र सत् हैं उनका समूह आत्मा है । किसी प्रकारका एकान्त अभिप्राय रखकर कोई मुनिप्रत भी पालन करे तथा कल्पित स्वरूपमै प्रात्माका ध्यान करे तो भी मिथ्यात्व नहीं छूटता । मन्द कषायके निमित्तसे भले ही किसीको स्वर्ग प्राप्त हो जावे, परन्तु समयसार अन्तस्तत्त्वका प्राश्रय लिये बिना मोक्षका साधन नहीं होता । अतः स्याद्वादसे सिद्ध तत्त्वको हो यथार्थ सममना चाहिये ।
प्रसंगविवरण – अनंतरपूर्व गाथा तक परमपूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयमाभृत ग्रन्थकी रचना को । अव इस अन्तिम गाथामें इस ग्रन्थके अध्ययन मननका फल बताया है।
तभ्यप्रकाश-(१) यह समयप्राभृत ग्रन्थ शब्दब्रह्मस्वरूप है, क्योंकि यह ग्रंथ विश्वसमय अर्थात समस्त द्रव्यका प्रतिपादक है । (२) समयप्राभृत विश्वसमयप्रतिपादक है, क्योंकि