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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार निभरस्वभावसुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानंदशब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं स्वमेव भविष्यतीति ॥ इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितं । प्रखंडमेकमचल स्वसंवेद्यमबा. धितं ।।२४६॥ ॥ ४१५ ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारख्याख्यायामात्मख्याती
सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोऽङ्कः ॥ ८ ॥ चेतयिता-प्रथमा एकवचन | सो स:-प्रथमा एक०। होही भविष्यति-भविष्यत्काले लुट् अन्य पुरुष एक बचन क्रिया । उत्तम-प्रथमा एकवचन । सोक्खं सौख्यं-प्रथमा एकवचन ।। ४१५ ।। ग्रन्थ विश्वको जानने वाले भगवान परमात्माके स्वरूपका दर्शक है। (३) भगवान परमात्म कार्यसमयसार है, भगवान प्रात्मा प्रोष कारणसमयसार है, क्षीणमोह वीतराग अन्तरात्म! समुचित कारणसमयसार है, समयप्राभृतग्रंथ परमागम समयसार है । (४) समयसार ग्रंथका अर्थसे अध्ययन करनेपर समयसार प्रात्मतत्त्वका ज्ञान होता है । (५) समयसार ग्रन्थका भावभासनासे अध्ययन करनेपर समयसार प्रात्मतत्त्वका सानुभव सम्यग्ज्ञान होता है । (६) समयसारको प्रर्थ से व तत्त्वसे जानकर ज्ञानघन परमब्रह्म अन्तस्तस्व समयसारमें जो स्थित होसा वह अलौकिक सहज परम आनन्दस्वरूप होता है। (७) अखण्ड प्रचल प्रबाधित स्वसंवेद्य शान मात्र अन्तस्तत्त्व समयसार है। (८) प्रानन्दमय विज्ञानधन प्रात्मस्वरूपको स्पष्ट दर्शाता हुमा यह जगचक्षु समयसार प्रन्थ पूर्णताको प्राप्त होता है । (६) मानन्दमय विज्ञानघन परमब्रह्मको प्रत्यक्ष दिखाता हुआ यह जगच्चक्षु सम्यग्ज्ञान अपने सहजविलाससे भरपूर होता है।
सिद्धान्त---(१) समयसार प्रभेद पैतन्यस्वरूप है। (२) कारणसमयसारके आश्रय से कार्यसमयसार होता है।
दृष्टि-१-भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनम (२३) । २-शुद्धनिश्चयनय (४६)।
प्रयोग---अलौकिक स्वाधीन सहज आनन्द पानेके लिये समयसार ग्रंथका अर्थसहित व भावभासनासहित अध्ययन मनन करके शुद्ध अन्तस्तत्वकी दृष्टिके बलसे ज्ञानघन प्रात्मस्व. रूपको शानमें बनाये रहना ।। ४१५ ॥ इनि पूज्यश्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसारपर व पूज्यश्रीमद्मृतचंद्रसूरिविरचित
प्रात्मस्याति टीकापर सविनख मानाधिकारको ।। श्रीमत्तहजानवविरचित सप्तदशाङ्गी टीका समाप्त ।।