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________________ विश्य ६११ ६१५ गावा सं. प्रारम्भ पृष्ठ सं० ३७३ से ३८२ स्पर्श आदि पुद्गलके परिणाम आत्माको प्रेरणा नहीं करते कि तुम हमको ग्रहण करो और अात्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनमें नहीं जाता, परन्तु अज्ञानी जीव व था राग-द्वेष करके विषयोंका निग्रह अनुग्रह भाव करता है ३८३ से ३८६ प्रतिक्रमण, प्रत्यास्थान और आलोचना का परमार्थ स्वरूप ३८७ से ३६६ कृत-कारित-अनुमोदनास, मन वचन कायसे, अतीत वर्तमान और अनागत कर्मके त्याग को ४१-४६ मंगों द्वारा कथन करके कर्मचेतना के त्यागका विधान तथा १४८ प्रकृतियोंके त्यागना यन करके कर्मफलचेतनाके त्यागका विधान ३१० से ४०४ जानकी समरस अायोंसे मिलतामा नपारगानीकी ज्ञानरूपताका कचन से ४०७ अमुर्तीक आत्मा के पुद्गलमय येह नहीं है, फिर अन्य द्रव्य का ग्रहण त्याग कैसा? ४०० से ४१० पराश्रित होनेसे देहलिग मोक्षमार्ग नहीं है। आत्नावित होनेसे सभ्यम्दचन ज्ञान-चारिन ही मोक्षमार्ग है ४११ चूंकि द्रव्पलिंग ही मोक्षमार्ग नहीं है, अतः समस्त लिगका ममत्व स्वाग करके आरमाको दर्शन-ज्ञान-चारित्र में लगाने की प्रेरणा ४१२ भव्य जीवको सम्यग्दर्शगजानचारित्ररूपा मोक्षमार्ग में स्थापन करनेका, उसीका ध्यान करनेका, उसीको अनुभव करनेका तथा उसी में निरन्तर बिहार करनेका उपदेश ४१३ जो द्रव्यलिंगों में ही ममत्व करते हैं उन्होंने समयसारको नहीं. जाना है । ४१४ व्यबहारनय मुनि और श्रावक के लिंगको मोक्षमागं कहता है, निश्चयनय किसी भी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता ४१५ जो इस समयप्राभृतको पढ़कर अर्थ और तस्व से जानकर इस ही के अर्थभूत परमब्रह्म-स्वरूप में रिघत होता है वह उत्तम सुखमय होता है। प्रारम्भिक ५ गाथावों के नामसंज्ञ व धातुसंज्ञ प्रकाशित होनेसे रह गये हैं उनका विवरण गाथा १-नामसंज्ञ-सम्वमिद्ध, धुन, अदल, अगोवम, गइ, पत्त, समयपाहुड, इम, ओ, मुथ केवलिभणिय । धातुसंश-वंद स्तुती, वञ्च व्यक्तायां वाचि । गाथा २-नामसंज्ञ -जीव, चरित्तदसणणाणट्ठि उ, त, हि ससमग्र पुग्गलकम्मपदेसठिय, त, परसमय । धातुसंज-माण अवबोधने । गाश ३-नामसज - एयणि न्छयगअ, सभा, सव्वस्थ, सुंदर, लोय, बंधकहा, एयत्त, त, विसंवादिणी । यात्रुश हो ससायां। गाथा ४ - नामसंश-सुदपरिचिणुभूदा, सव्व, वि, कामभोगबंधकहा, एयन, उवलंभ, णावरि, ण, सुलह, वित्त । धातसंह- मज भोगे, बंध बंधने । __ गाथा ५-नामसंज्ञ--त, एयत्तविहन, अम्प, सविहव, जदि, पमाण, छल, ण। धातुमंज-दरस दर्शनाया, घुक्क भ्रश ने, घस गवेषणे, गह ग्रहणे । नोट---प्राकृतपदविवरण संस्कृतपदविवरण के साथ दिये गये। केवल २-१ जगह अन्तर भायेगाजही संस्कृतपद द्विवचनकी जगह प्राकृतपद बहवसन आता है। सो वहां प्राकृत पद के साथ विभक्ति अलग-अलग दी गई है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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