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________________ गाथा सं० विष्य प्रारम्भ पृष्ठ सं० ३०१ से ३०३ परद्रव्यको ग्रहण करने याला अपराधी है, अत: बह बन्धनमें पड़ता है, परदयको ग्रहण करनेका अपराध न करनेवाला बन्धन में नहीं पड़ता ३.४ से ३०५ शुद्ध सहजात्मस्वरूप की दृष्टि से हटना अपराध है, स्वरूपाराधना के बलसे निरपराय हुआ आत्मा निःशंक व जिवन्ध होता है ५१७ ३०६ से ३०७ प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण से रहित अप्रतिक्रमणादिस्वरूप तीसरी अबस्थासे आत्मा निोप होता है। इस सहज स्वरूपकी उपलब्धि के बिना द्रव्यप्रतिक्रमणादिसे भी मोक्षमार्ग नहीं मिलता ५११. २० -सर्गविशुद्ध जल शादिगार ३०८ से ३११ आत्माके अकत वका सयुक्तिक सोदाहरण आख्यान ५२७ ३१२ से ३१३ आत्मा प्रकृतिका परस्पर निमित्त से बन्ध और बन्धका मूल कारण जीवका अज्ञानभान ३१४ से २१५ जब तक आत्मा प्रवृति के निमित्तसे उत्पन्न होना और नष्ट होना न छोड़े तब तक अज्ञानी, मिथ्यावृष्टि, असंयत है। छोड़नेपर झाता द्रष्टा संयमी होता है। ३१६ कतत्वकी तरह भाक्तृत्व भी आत्माको स्वभाव नहीं है, जीव अज्ञानसे ही भोक्ता होता है। ३१७ जरो मीठे दुग्धको पीते हुए भी सर्व निर्विष नहीं होते, इसी प्रकार भली भांति शास्त्रोंको पढ़कर भी अभव्यजीव प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता, अतः वह भोवता ही है ५३८ ३१८ शानी कर्मफलका भोक्सा नहीं है वह तो कर्मफलका मात्र ज्ञाता है। ३१६ से ३२० जानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता द्रष्टा है इसका दृष्टान्तपूर्वक कथन ३२१ से ३२३ जो आत्माको संसारका कता मानते हैं उनको भी लौकिक पुरुषों की भांति नित्यकतृत्व का प्रसंग आनेसे मोक्ष नहीं होता ३२४ से ३२७ जो व्यवहारभाषाको ही निश्यप मानकर आत्माको परद्रव्यका फर्ता मानते हैं, वे भिध्यादष्टि हैं। मानीजन निश्चयसे जानते हैं कि परमाणमाज भी मेरा नहीं है। जो तथ्यसे अपरिचित हैं वे ही परद्रयके विषय में कत्त्व का आशय रखते हैं ३२८ से ३३१ अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) ही अपने भाबकर्मका कर्ता है, इसका युक्तिपूर्वक कथन ५५३ ३३२ से ३४४ आत्माका कतत्व और आतृत्व जिस तरह है उस तरह शंका समाधानपूर्वक स्थाद्वाद द्वारा सिद्ध करना । से ३४८ जो कर्मको करनेवाला है मोगने वाला वही है अथवा दूसरा ही है, इन दोनों एकान्तों का युक्तिपूर्वक निषेध मे ३५५ कां-वभ फा तथा भोक्ता-भोग्य का भेद-अभेद जिस प्रकार है, उसी प्रकार से नपके विभागले दृष्टान्त द्वारा वर्णन । ३५६ से ३६५ निश्चय और व्यवहारके कथनकी नडियाके दृष्टान्तसे स्पष्टीकरण ३६६ से ३७१ ज्ञान और अंग सर्वथा भिन्न हैं, ऐसा जानने के कारण सम्पदृष्टिको विषयों में, कमोंमें, कायोंमें राग-द्वेष नहीं होता। राग-द्वेषको खान अज्ञानभाव है। ३७२ अन्य द्रव्य अन्य वयमें कुछ भी गणोत्पाय नहीं कर सकता ५५८
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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