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________________ गाया सं २५६ से २६४ २९.५ २६६ से २६७ २५० से २६ अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करने वाला न होनेसे मिथ्या है। मिष्टि जीव कियागमं विधमान व ज्ञायमान संबंधित अध्यवसानसे अपनी आत्माको अनेक अवस्थारूप कर डालता २०० जिनके उक्त तीनों ही प्रकार के अज्ञानरूप अध्यवत्तान नहीं है, वे शुभ अशुभ किसी कर्मसे लिप्त नहीं होते इसका विवरण विषय उक्त अगातमय अध्यवसान हो बन्धका कारण है अपना अध्यवसान भाव हो वन्धका कारण है, अन्य कोई भी आश्रयभूत वस्तु बन्धका कारण नहीं २७१ अध्यवसानके अर्थका नामले स्पष्टीकरण ३ २७२ निषेध प्रति समस्त व्यवहारनयका निषेध हो जाता है। २७३ केवल व्यवहारका आलम्बन अभव्य भी करता है, पर मदार्थस्वरूपको नहीं होने से व्रत समिति गुप्ति पालकर और ग्यारह अंग पढ़कर भी वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, उसे मोल नहीं है · २०४ का ज्ञान होनेपर भी अभव्य जीव सहजात्मस्वरूप था नहीं होने से गुणविकास नहीं कर पा अभव्यको धर्म था भोगके निमित्त है, के निमित नहीं है रत्नत्रयविषयक व्यवहार और निश्चयका स्वरूप २७५ २७६ से २७७ २७५ से २५० २८१ से २५२ २०३ से २०७ रागादिक भावोंका निमित्त परद्रव्य है, आत्मा नहीं आत्मा रामादिकका कर्ता किस रीति है उसका कथन द्रव्य और भाव में निमित्त मिसिकताका उदाहरण देते हुए आत्माके विकारा. कर्तुत्वा समर्थन e-मोक्ष अधिकार २० से २१० जो जीव बन्धका तो छेद नहीं करता परन्तु मात्र बंधके स्वरूपको जानकर ही सन्तुष्ट होता है, वह मोक्ष प्राप्त नहीं करता। मोक्ष तो नही होता है। २११ से बन्धकी चिन्ता करने पर भी बन्ध नहीं छूटता वैसे ही मात्र कर्मविषयक चिन्तन से ही बंध नहीं हटता २६२ से २६३ बन्धस्वभाव व आत्मस्वभावको जानकर बन्धसे विरक्त होनेसे हो सकने वाले वन्धके छेदन से ही मोक्ष होता है २४ कर्मबंधनेकर करण प्रज्ञारूप शरत्र ही है २६५ प्रारम्भ पृष्ठ सं प्रज्ञारूप करणसे आत्मा और बन्ध दोनोंको पृथक करके प्रज्ञासे हो आत्माको ग्रहण करने और प्रज्ञासे ही बंधको वनेका उपदेश २१६ जैसे प्रज्ञाके द्वारा से विभक्त किया, वैसे ही प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा ग्रहण करना चाहिये २६७ से २१६ आरमाको प्रज्ञा द्वारा किस प्रकार पहण करना चाहिये इसका सामान्य विधिव विशेष विधिसे कथन चिन्मयभावको ही स्व मानने वाला अन्य भावको कभी स्वीकार नहीं कर सकता ( ५० ) ४४४ '४५१ ४५४ ४५८ ४६४ ४६६ ४६८ ४६६ ४७२ ૪૭૪ ४७७ ४५० YEY ४६२ ४६५ ४१६ ४६६ ५०३ ५०४ ५०६ ५१२
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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