________________
समयसार रस ज्ञान नहीं होता, क्योंकि रस नहीं जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक् है, तया पृथक् रस कहा प्रभुने ॥३६५॥ स्पर्श ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं स्पर्श जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक है, स्पर्श पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३६६॥ कर्म शान नहिं होता, क्योंकि नहीं कर्म जानता कुछ भो । इससे ज्ञान पृथक् है, कर्म पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३६७॥ धर्म ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं धर्म जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक् है, धर्म पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३९॥ न अधर्म ज्ञान होता, क्योंकि नहिं अधर्म जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक है, अधर्म पर यों कहा प्रभुने ॥३६६॥ काल ज्ञान नहि होता, क्योंकि नहीं काल जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक् है, काल पृथक् यों कहा प्रभुने ॥४००॥ आकाश ज्ञान नहि है, क्योंकि प्राकाश मानता नहीं कुछ । इससे ज्ञान पृथक् है, आकाश पृथक् कहा प्रभुने ॥४०१॥ अध्यवसान झान नहि, अध्यवसान भी तो अचेतन है । इससे ज्ञान पृथक् है, तथा है अध्यवसान पृथक् ॥४०२॥ जानता नित्य आत्मा, इससे ज्ञानी है पारमा नायक । है अभिन्न शायफसे, ज्ञान सदा तन्मयो जानो ॥४०३॥ ज्ञान हि सम्यग्दृष्टी, व अंगपूर्वगत सूत्र संयम यह ।
धर्म अधर्म व दीक्षा, बुधजन इस शानको कहते ॥४०४॥ नित्यं, तत्, जीव, तु, ज्ञायक, ज्ञानिन्, ज्ञान, चं, शायक, अव्यतिरिक्त, ज्ञातव्य, शान, सम्यग्दृष्टि, तु, संयम, सूत्र, अंगपूर्वगत, धर्माधर्म, च, तथा, प्रवज्या, बुध । मूलधातु-भू सत्तायां, झा अक्बोधने, विद जानाति] स्पर्श कुछ जानता नहीं। [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको प्रन्य [स्पर्श अभ्यं] स्पर्शको अन्य [विति] कहते हैं : [कर्म ज्ञानं न भवति] कर्म ज्ञान नहीं है [यस्मात] क्योंकि [कर्म किचित् न जानाति] कर्म कुछ जानता नहीं [तस्माव] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको अन्य व [कर्म अन्यत्] कर्मको अन्य विदंति] कहते हैं। [धर्मः हामं न भवति] धर्मद्रथ्य ज्ञान नहीं है [यस्मात] क्योंकि [धर्मः किंचित न जानाति धर्म कुछ जानता नहीं [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिनदेव ज्ञानं अन्यत्] ज्ञान