________________
कर्तृकर्माधिकार
१४५ भवनमात्रसहजोदासीनावस्थात्यागेन व्याप्रियमाणः प्रतिभाति स कता । यत्तु ज्ञानभवनव्याप्रियमागत्वेभ्यो भिन्न क्रियमाणत्वेनांतरुप्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म । एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः । एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानाकर्तृकर्मभावेन क्रोधादिषु वर्तमानस्य संचय, जीव, एवं, बन्ध, खल, सर्वदशिन् । मूलधात -विद ज्ञाने, स गतौ, ऋध क्रोधे दिवादि, वृतु वर्तने, संचित्र चयने स्वादि. ८ मत्तायां, बंध बंधने, भण शब्दार्थः, इशिर प्रेक्षणे | पदविवरण यावत्-अध्ययः । न-अव्यय । वेति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। विशेषान्तर-द्वितीया एक कर्मकारक । तुअव्यय । आत्मासवयोः-पाठी द्विवचन । अपि अव्यय । अज्ञानी-प्रथमा एकः । तावत-अव्यय । स;प्रथमा एक कर्तृ विशेषण । क्रोधादिषु-सप्तमी बहुवचन । वर्तते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीव:किये गये अन्तरंग उत्पन्न क्रोधादिक प्रतिभासित होते हैं, वे उस कर्ताके कर्म हैं । इस प्रकार यह अनादिकालसे हुई इस मात्माकी कर्ताकमकी प्रवृत्ति है । ऐसे अज्ञानभावसे कर्ताकर्मभाव द्वारा क्रोधादिकों में वर्तमान इस जीवके क्रोधादिकको प्रवृत्तिरूप परिणामको निमित्तमात्र कर अपने प्राप हो परिणमता हुअा पुद्गलमय कर्म संचित होता है। इस भांति जीवके और पुद्गलके परस्पर प्रवगाहलक्षण सम्बन्धस्वरूप बंध सिद्ध होता है। और अनेकात्मक होनेपर भी एकसंतानपना होनेसे इतरेतरराश्रयदोषरहित होता हुआ वह बंध कर्ता-कर्मकी प्रवृत्तिका निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्त कारण है।
भावार्थ---जैसे ज्ञानी आत्मा अपने आत्मा और ज्ञानको एक जानकर अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमन करता है उसी प्रकार प्रज्ञानी जीव क्रोधादिक भाव व अपने प्रात्माको एक जानकर क्रोधादिरूप परिणमन करता है सो ज्ञानमें और क्रोधादिकमें जब तक भेद नहीं जोनता तब तक इसके कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है । क्रोधादिरूप परिणमन करता हुआ आप तो कर्ता है और वे क्रोधादिक इसके कर्म हैं। अनादि अज्ञानसे यों कर्ताकर्मको प्रवृत्ति है और कर्ताकर्मको प्रवृत्ति से बन्ध है तथा बन्धके निमित्तसे प्रज्ञान है । यो उसको संतान (परम्परा) है । अतः इसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं है । ऐसे जब तक प्रात्मा क्रोधादिक कर्मका कर्ता होकर परिणमन करता है, तब तक कर्ताकर्मको प्रवृत्ति है और तभी तक कर्मका बंध होता
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थनमें जीव और अजीयका निश्चयन यसे वर्णन करके दिखाया था कि ये परस्पर कर्तृकर्मभावसे रहित है । अब उसी कर्तृ कर्मभावरहितपनेका विवरण किया जाना प्रावश्यक है। इसके लिये प्रथम यह जानना आवश्यक है कि प्रज्ञानदशामें स्वयं कर्तृकर्मभावकी कैसी प्रवृत्ति होती है तब यह भी सुगमतासे ज्ञात हो जावेगा कि सम्यज्ञान होनेपर यह कर्तृकर्मभाव यों सुगमतया दूर हो जाता है । सो यहाँ पहिले अज्ञानदशाके