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समयसार तमेव क्रोधादिवृत्तिरूपं परिणाम निमित्तमात्रोकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौद्गलिक कम संचयमुपयाति । एवं जीवपुद्गलयो: परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बंधः सिद्ध्येत् । सचानेकात्मकैकसंतानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रमदोषः कर्तृ कर्मप्रवृत्तिनिमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तं ।।६६-७०।। प्रथमा एकवचन कर्ता । क्रोधादिषु-सप्तमी एक । वर्तमानस्य-षष्ठी एक० । तस्य--पाठी एक० । कर्मण:षष्ठी एक० । संचय:-प्रथमा एकः । भवति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवस्य-चप्ठी एक० । एवंअव्यय । बन्धः-प्रथमा एक० । भणितः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया। खलु-अव्यय । सर्वदर्शिभिः-तृतीया बहुवचन ।। ६९-७० ।। तथ्यको जाननेके लिये जीव और अजीवका कर्ताकर्मके वेशसे प्रवेश कराया गया है।
तथ्यप्रकाश- (१) अज्ञानदशामें मूलमें कर्ताकर्मप्रवृत्तिको बुद्धि ऐसी रहती है कि मैं समझदार तो करता हूं व इन क्रोधादिभावों को करता हूं। (२) बाह्य में कर्ताकर्मबुद्धि ऐसी रहती है कि मैं इन घट-पट आदि पदार्थों को करता हूं, पुत्रादिको सुखी करता हूंपादि । (३) बाहरी कितना भी विवेक व प्रयत्न करनेपर भी ज्ञान, वैराग्य व शान्ति तब तक नहीं बनती जब तक प्रात्मस्वरूप और प्रौपाधिक भावोंमें स्व-परका अन्तर ज्ञात न हो जाय । (४) औपाधिक भाव पर हैं यह तब तक विदित नहीं होगा, जब तक ये विकार नैमितिक हैं यह शात न हो जाय । (५) विकारके नैमित्तिकपनेका ज्ञान स्वभावपरिचयके साथ अविनाभावी है। (६) मैं अविकारस्वरूप मात्र जाता हूं ये विभाव कर्मविपाकके प्रतिफलनके जुड़ावसे है, ऐसा ज्ञान होनेपर ही कर्मरसमें उपयोग नहीं जुड़ता।।
सिद्धान्त-(१) प्रात्मा और प्रास्रवादिका भेद ज्ञात न होनेसे जो उनमें एकत्वकी बुद्धि है वह मोह है । (२) क्रोधादिक प्रास्रवमें प्रवर्तनका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणार्ये कर्मत्वरूप परिणत हो जाती है।
____ दृष्टि- १- संश्लिष्टस्वजातिविजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार (१२७) । २- उपाधि सापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) ।
प्रयोग -- कर्मविपाकके प्रतिफलनसे विलक्षण सहज प्रात्मस्वभावको निरखना व उसमें गुप्त होनेका पौरुष करना ।।६६-७०॥।
यहाँ प्रश्न होता है कि इस कर्ताकर्मको प्रवृत्तिका प्रभाव किस कालमें होता है उसका उत्तर कहते हैं--[यदा] जिस समय [अनेन जोवेन] इस जीवके द्वारा [प्रात्मनः] अपना तथैव च] और [प्रास्त्रवाणां] आस्रवोंका [विशेषांतरं भिन्न लक्षण [जातं भवति] विदित हो जाता है [तदा तु] उसी समय [तस्य] उसके [बंधः न] बंध नहीं होता।
• तात्पर्य-आत्मस्वभाव और प्रास्रव विकारमें जब ही भेद दृढ़तासे हो जाता तब हो