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________________ १४६ समयसार तमेव क्रोधादिवृत्तिरूपं परिणाम निमित्तमात्रोकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौद्गलिक कम संचयमुपयाति । एवं जीवपुद्गलयो: परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बंधः सिद्ध्येत् । सचानेकात्मकैकसंतानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रमदोषः कर्तृ कर्मप्रवृत्तिनिमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तं ।।६६-७०।। प्रथमा एकवचन कर्ता । क्रोधादिषु-सप्तमी एक । वर्तमानस्य-षष्ठी एक० । तस्य--पाठी एक० । कर्मण:षष्ठी एक० । संचय:-प्रथमा एकः । भवति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवस्य-चप्ठी एक० । एवंअव्यय । बन्धः-प्रथमा एक० । भणितः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया। खलु-अव्यय । सर्वदर्शिभिः-तृतीया बहुवचन ।। ६९-७० ।। तथ्यको जाननेके लिये जीव और अजीवका कर्ताकर्मके वेशसे प्रवेश कराया गया है। तथ्यप्रकाश- (१) अज्ञानदशामें मूलमें कर्ताकर्मप्रवृत्तिको बुद्धि ऐसी रहती है कि मैं समझदार तो करता हूं व इन क्रोधादिभावों को करता हूं। (२) बाह्य में कर्ताकर्मबुद्धि ऐसी रहती है कि मैं इन घट-पट आदि पदार्थों को करता हूं, पुत्रादिको सुखी करता हूंपादि । (३) बाहरी कितना भी विवेक व प्रयत्न करनेपर भी ज्ञान, वैराग्य व शान्ति तब तक नहीं बनती जब तक प्रात्मस्वरूप और प्रौपाधिक भावोंमें स्व-परका अन्तर ज्ञात न हो जाय । (४) औपाधिक भाव पर हैं यह तब तक विदित नहीं होगा, जब तक ये विकार नैमितिक हैं यह शात न हो जाय । (५) विकारके नैमित्तिकपनेका ज्ञान स्वभावपरिचयके साथ अविनाभावी है। (६) मैं अविकारस्वरूप मात्र जाता हूं ये विभाव कर्मविपाकके प्रतिफलनके जुड़ावसे है, ऐसा ज्ञान होनेपर ही कर्मरसमें उपयोग नहीं जुड़ता।। सिद्धान्त-(१) प्रात्मा और प्रास्रवादिका भेद ज्ञात न होनेसे जो उनमें एकत्वकी बुद्धि है वह मोह है । (२) क्रोधादिक प्रास्रवमें प्रवर्तनका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणार्ये कर्मत्वरूप परिणत हो जाती है। ____ दृष्टि- १- संश्लिष्टस्वजातिविजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार (१२७) । २- उपाधि सापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग -- कर्मविपाकके प्रतिफलनसे विलक्षण सहज प्रात्मस्वभावको निरखना व उसमें गुप्त होनेका पौरुष करना ।।६६-७०॥। यहाँ प्रश्न होता है कि इस कर्ताकर्मको प्रवृत्तिका प्रभाव किस कालमें होता है उसका उत्तर कहते हैं--[यदा] जिस समय [अनेन जोवेन] इस जीवके द्वारा [प्रात्मनः] अपना तथैव च] और [प्रास्त्रवाणां] आस्रवोंका [विशेषांतरं भिन्न लक्षण [जातं भवति] विदित हो जाता है [तदा तु] उसी समय [तस्य] उसके [बंधः न] बंध नहीं होता। • तात्पर्य-आत्मस्वभाव और प्रास्रव विकारमें जब ही भेद दृढ़तासे हो जाता तब हो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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