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________________ जीवाजीवाधिकार harsस्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तनिवृत्तिरिति चेत् जहया इमेण जीवेगा अप्पणो आसवाण य तहेव । खादं होदि बिसेसंतरं तु तहया या बंधो से ॥ ७१ ॥ १४७ जब इस श्रात्मा द्वारा श्राश्रय श्रात्मस्वरूप में अन्तर । हो जाता ज्ञात तभी से इसके बंध नहिं होता ||७१ ॥ यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च तथैव । ज्ञातं भवति विशेषांतरं तु तदा न बंधस्तस्य ॥ ७१ ॥ ॥ इह किल स्वभावमात्रं वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा । क्रोधादेर्भवनं क्रोधादिः । अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तन्त्र क्रोधादेरपि भवनं यतो यया ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि । यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं यतो यथा नामसंज्ञ जइया, इम, जीव, अप्प, आसव, य, तह, एव, णाद, बिसेसतरं तु, तइया, ण, बंध, त । धातुसंज्ञ -- आसव स्रवणे गतौ च जाण अवबोधने हो सत्तायां बंध बंधने । प्रातिपदिक - यदा इदम्, जीव, आत्मन, आव, च, तथा, एव, ज्ञान, विशेषान्तर, तु, तदा, न, बन्ध, तत् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, अल सातत्यगतौ स्रु गती, ज्ञा अवबोधने, भू सत्तायां, बन्ध बन्धने । पदविवरण — यदा- अव्यय । बन्ध नहीं होता । टोकार्थ - इस लोक में वस्तु अपने स्वभावमात्र है और अपने भावका होना ही स्वभाव है, इसलिये यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानका जो होना (परिणमन ) है वह तो प्रात्मा है तथा धादिकका जो होना (परिणमना) है वह क्रोधादिक है । ऐसा होनेसे जो ज्ञानका परिणमन है, वह क्रोधादिका परिणमन नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान होनेपर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है। वैसे क्रोधादिक नहीं मालूम होते । जो क्रोधादिकका परिणमन है, वह ज्ञानका परिणमन नहीं है, क्योंकि क्रोधादिक होनेपर क्रोधादिक हुए ही प्रतीत होते हैं, ज्ञान हुआ मालूम नहीं होता । इस प्रकार क्रोधादिक श्रीर ज्ञान इन दोनोंके निश्चयसे एकवस्तुपना नहीं है | अतः म्रात्मा और श्रावका भेद देखनेसे जिस समय यह आत्मा भेद जानता है, उस समय इसके अनादि • कालसे उत्पन्न हुई परमें कर्ताकर्म की प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती हैं । प्रौर उसकी निवृत्ति होनेपर ज्ञानके निमित्तसे होने वाला पुद्गलद्रव्य कर्मका बन्ध भी निवृत्त हो जाता है । ऐसा होनेपर ज्ञानमात्र से ही बंधका निरोध सिद्ध होता है । भावार्थ - क्रोधादिक और ज्ञान पृथक्-पृथक् वस्तु हैं । ज्ञानमें क्रोधादिक नहीं हैं, क्रोधादिकमें ज्ञान नहीं है । इस प्रकार ज्ञानसे ही बंधका. निरोध होता है । प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथायुगल में बताया था कि अज्ञानसे जीवकी परभाव में कर्तृकर्मप्रवृत्ति होती है और इस प्रवृत्तिसे कर्मसंचय होता है जो संसारक्लेशको मूल है। इस
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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