________________
समयसार क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवंतो विभाव्यते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न खल्वे. कवस्तुत्वं इत्येवमात्मात्मास्रयोविशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिवर्त्तते तन्निवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्य कर्मबंधोगि निवर्तते । तथा सति ज्ञानमाश्रादेव बंधनिरोधः सिद्ध्येत् ।।७१।। अनेन-तृतीया एक० । जीवेन-तृतीया एकवचन । आत्मन:-बाठी एक० । आत्रवाण:-पाठी बहुवचन । चअव्यय । तथा अव्यय । एब-अव्यय । ज्ञान प्रथमा एकवचन कृदन्त प्रिया । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । विशेषान्तर-प्रथमा एक० । तु-अव्यय । तदा-अध्यय । न-अध्यय । बधःप्रया एक० । तस्य-पाठी एकवचन ।। ७१ ।।। चर्चाको सुनकर यह जाननेकी उत्सुकता होना प्राकृतिक है कि फिर जीवकी इस कर्तृकर्मप्रवृत्तिको निवृत्ति कब और कैसे होगी, इसी जिज्ञासाका इसमें समाधान किया गया है।
तथ्यप्रकाश- (१) वस्तुतः वस्तु स्वस्वभायमात्र है । (२) पोद्गलिक क्रोधप्रकृति में क्रोधविपाक होना उपादानतया परभाव है । (३) क्रोध प्रकृतिविपाकका निमित्त पाकर उपयोग में प्रतिफलित क्रोध औपाधिक परभाव है । (४) यहाँ भावके परिचयसे स्व-परका निर्णय किया गया है । (५) ज्ञानभावमें क्रोधभाव नहीं है, क्रोधभावमें ज्ञानभाव नहीं है । (६) ज्ञान प्रात्मा है, क्रोध प्रास्रव है । (७) प्रात्मा और प्रास्रवमें एकत्वबुद्धि होना प्रज्ञान है । (८) अपने प्रात्माको स्त्र और प्रास्त्रबको पर जान लेना भेदज्ञान है । (६) प्रात्मा और पात्रबमें भेद जानकर आत्माभिमुखताको भावना सहित आत्माका जानना ज्ञान है । (१०) ज्ञान होने पर ज्ञानकी स्थिरतादि माफिक कर्मबन्धका निरोध हो जाता है ।
सिद्धान्त-(१) वस्तु स्वस्वभावमात्र है । (२) पुद्गलकर्मका विपाक पुद्गल कर्ममें ही है । (३) कर्मविपाकके प्रतिफलनकी अशुद्धता जीवमें है । (४) प्रात्माको कर्मास्रवमय समझना अज्ञान है । (५) अात्माको विभाव प्रास्रवमय समझना अज्ञान है।
दृष्टि - १- शुद्धनय (४६)। २- अशुद्ध निश्चयनय (४७)। ३- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। ४- एकजातिद्रव्ये अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भूत व्यवहार (११३) । ५- स्वजातिद्रव्ये स्वजातिपर्यायोपचारक प्रसद्भूत व्यवहार (११४) ।
प्रयोग---अपनेको सहज ज्ञानस्वभावमात्र निरखते हुए नैमित्तिक विकारोंकी उपेक्षा करके अपनेको ज्ञान मात्र अनुभवनेका उद्यम करना ।१७१।।।
अब पूछते है कि ज्ञानमात्रमें हो बंधका निरोध कैसे है ? उसका उत्तर कहते हैं[प्रास्रयाणां च] आस्रवोंके [अशुचित्वं] प्रशुचिपनेको [च विपरीतभावं] और विपरीतपनेको [च दुःखस्य कारणानि इति] ' तथा ये दुःखके कारण हैं, इस तथ्यको [जात्या] जानकर