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________________ सिद्ध संबंधयोरयात्मक्रोधाद्यानवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावभेदं न पश्यति तावदशंकमात्मत्तया क्रोधादौ वर्तते । तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेपि स्वभावभूतत्वाध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति । तदत्र योयमात्मा स्वयमज्ञानभवने ज्ञानवर्तने, सम्-चय पतनचयनयोः, हो सत्तायां, भण कथने, दरस दर्शनायां । प्रातिपदिक-यावत्, पि. विशेपान्तर, तु, आत्मास्रव, द्वि, अपि अज्ञानिन्, तावत्, तत्, क्रोधादि, जीय, क्रोधादि, वर्तमान, तत्, कमन्. शित करनेका जिसका स्वभाव है, इसी कारण समस्त लोकालोकको साक्षात् करतो है। भावार्थ-ज्ञानस्वरूप आत्मा परद्रव्य तथा परभावोंके कर्ताकर्मपनेके अज्ञानको दूर कर स्वयं । प्रकट प्रकाशमान होता है। मागे कहते हैं कि यह जीव जब तक यात्रव और आत्माके भेदको नहीं जानता तब तक अज्ञानी हुमा प्रास्रवों में लीन होकर कर्मोका बंध करता है-[जीयः] यह जीव [यावत्] जब तक [प्रात्मारवयोः द्वयोः अपि तु] अात्मा और प्रास्रब इन दोनोंके [विशेषांतरं] भिन्नभिन्न लक्षणको [न वेत्ति] नहीं जानता (तावत्) तब तक (स अज्ञानी) वह अज्ञानी हुअा (क्रोधादिषु) क्रोधादिक प्रास्रवोंमें (वर्तते) प्रवर्तता है । (क्रोधादिषु) क्रोधादिकोंमें (वर्तमानस्य तस्य) वर्तते हुए उसके (कर्मणः) कर्मोंका (संचयः भवति) संचय होता है । (खलु) निश्चयतः (एव) इस प्रकार (जीवस्य) जीवके (बंधः) कोका बंध (सर्वदशिभिः) सर्वज्ञदेवोंने (भरिणतः) कहा है। तात्पर्य---स्वभाव व विभावमें भेदज्ञान न होनेके कारण अज्ञानी जीव विभावमें निःशंक प्रवर्तता है, अतएव उसके कर्मोंका विकट बन्ध होता रहता है। टीकार्थ-जैसे यह मात्मा तादात्म्य सिद्ध सम्बन्ध वाले प्रात्मा और ज्ञानमें भेद नहीं. देखता हुआ ज्ञानमें निःशंक होकर आत्मरूपसे प्रवृत्त होता है । वहाँ प्रवर्तन करने वाले के ज्ञानक्रियारूप प्रवृत्ति स्वभावभूत है, अतः उसका निषेध नहीं है । इसलिये उस ज्ञानक्रियासे । जानता है । अर्थात् जाननमात्र रूपसे परिणमन करता है, उसी प्रकार संघोगसिद्धसम्बन्ध रूप । श्रात्मा और क्रोधादिक पासबमें भी अपने अज्ञानसे विशेष भेद न जानता हुमा जब तक उनके , भेदको नहीं देखता तब तक निःशंक होकर क्रोधादिमें प्रात्मरूपसे प्रवृत्ति करता है। वहाँ । प्रवृत्ति करते हुए उसके जो क्रोधादि किया है वह परभावसे हुई है, इसलिये वे क्रोधादि प्रतिधरूप हैं तो भी उनमें स्वभावका अध्यास होनेके कारण प्राप क्रोध, राग और मोहरूप परिप्णमन करता है । अतः अपने अजानभावसे परिणमन मात्र स्वभावजन्य उदासीन-ज्ञाता-द्रष्टा मात्र अवस्थाका त्याग कर यह अज्ञानी जीव क्रोधादिव्यापाररूप परिणमन करता हुआ प्रतिभासित होता है, इसलिये कर्मोंका कर्ता है । अब यहाँ जो ज्ञानपरिणमनरूप प्रवर्तनेसे पृथक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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