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________________ कत्तुं कर्माधिकार अथ कर्तृकर्माधिकारः अथ जीवाजीवावेव कत्तं कर्मवेषेण प्रविशत: । एकः कर्ती चिदहमिह में कर्म कोपादयोऽमी, इत्यज्ञानां शमयदभतः कर्तृकर्मप्रवृत्ति । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यंतधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधि पृथगद्रव्यनिर्भासि विश्वं ॥४६॥ जाव ण वेदि बिसेसंतरं तु यादासवाण दोह्नपि । बाणी तापदु सो कोषादिसु षदे जीवो ॥६॥ कोधादिसु वतस्स तस्म कम्मस्स संचो होदि । जीवस्सेबं बंधो भणिदो खलु सब्बदरसीहिं ॥७०॥ (युग्म) जब तक न लले अन्सर, प्रास्रव प्रात्मस्वरूप दोनोंमें । तब तक वह प्रज्ञानी, क्रोधादिकमें लगा रहता ॥६६॥ क्रोधाविकमें लगा जो, संचय उसके हि कर्मका होता । यो बन्ध जोबका हो, दर्शाया सर्वदर्शीने ॥७०॥ यावन्न वेत्ति विशेषांतरं त्वात्मास्रव योद्वयोरपि । अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः ॥६६॥ कोषादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः संचयो भवति । जीवस्यैवं बंधो भणितः खलु सर्वदशिभिः ।।७०॥ ___ यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसम्बंधयोरात्मज्ञानयोरविशेषाभेदमपश्यन्नविशंकमात्मतया जाने वर्तते तत्र वर्तमान पच ज्ञान क्रियायाः स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति तथा संयोग नामसंज्ञ-जाव, ण, बिसेसंतर, तु, आदासवाण, दु, पि, अण्णाणि, ताक्दु, त, क्रोधादि, जीव, क्रोधादि, वट्टत, त, कम्म, संचअ, जीव, एवं बंध, भणिद, खलु, सव्वदरिसि । धातुसंज-विद ज्ञाने, वत्त अब जीव, अजीव दोनों का कर्मका वेष धारण करके प्रवेश करते हैं। (जैसे दो पुरुष आपसमें कोई स्वांग रचकर नृत्यके अखाड़ेमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार यहाँ अलंकार जानना । उस स्वांगको जो ज्ञान यथार्थ जान लेता है, उसकी महिमामें काध्य कहते हैंएकः इत्यादि । अर्थ--इस लोकमें मैं चतन्यस्वरूप प्रात्मा तो एक कर्ता हूं और ये क्रोधादिक भाव मेरे कर्म हैं, इस प्रकारको कर्ता कर्मकी प्रवृत्तिको शमन करती हुई ज्ञानज्योति स्फुरायमान होती है । जो ज्ञानज्योति उत्कृष्ट उदात्त है, किसीके आधीन नहीं है, अत्यंत धीर है अर्थात् किसी प्रकारसे प्राकुलतारूप नहीं है, और दूसरेको सहायताके बिना भिन्न-भिन्न द्रव्योंके प्रका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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