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________________ १४२ समयसार जीवो स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः । विश्वं व्याप्य प्रसविकसद्ध्यक्तचिन्मात्रशक्त्या झोतृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुर्चश्चकाशे ॥४५।। इति जीवाजीवी पृथग्भूत्वा निष्क्रांती ॥६८।। ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातो जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्कः ।।१।। बहु । नित्यं-अव्यय प्रथमा एक ० । अचेतनानि-प्रथमा बहु० । उक्तानि-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया ।।६।। (३) कार्य सब कारणले अनुगार होते हैं. लो पुगतदनिकके ये प्रतिफलनस्वरूप गुणस्थान भी पुद्गल अथवा पौद्गलिक हैं। (४) चेतन वही है जो चेतनागुण व मात्र चेतना. गुणको परिणति हो, सो चैतन्यस्वभावसे व्याप्त आत्मासे अन्य हैं ये गुणस्थान, राग, विशुद्धिस्थान, संयमस्थान प्रादि, अतः ये सब अचेतन हैं । (५) परमार्थतः जीव अचल सनातन स्व. संवेद्य चैतन्यस्वरूप ही है, क्योंकि जो जीवमें निरन्तर एकरूप हो वही जीवस्वरूप है। (६) परमार्थ प्रखण्ड अचल जीवस्वरूपको दृष्टि में यह सारा जगजाल ऐसा लगता है कि यह सारा नाच पुद्गल ही कर रहा है । (७) परमार्थ जीव व शेष अजीब भली-भांति पृथक्-पृथक जात होते ही यह ज्ञाता भगवान प्रात्मा चैतन्यमात्र शक्तिसे स्पष्ट प्रकाशमान होता है। सिद्धान्त--(१) पुद्गलकर्मोदयादिके निमित्तसे होने वाले विकार पोद्गलिक हैं, मात्मा तो केवल चैतन्यचमत्कारमात्र है । (२) प्रात्मा शाश्वत चैतन्यस्वभावसे क्या है, अतः मात्मा चेतन है। दृष्टि-१- विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८), २-परमशुद्धनिश्चयनय (४४-४५)। प्रयोग—अपने परमार्थ सहज चैतन्यस्वरूपको निरखते हुए उपयोगको अन्तः विकारसे परभावोंसे बिरुकुल हटाकर चैतन्यस्वरूपमें लीन होनेका पौरुष करना ॥६॥ ॥ इति जीवाजीवाधिकार समाप्तः ।।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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