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________________ जीवाजीवाधिकार चैतन्यमालंब्यतां ॥४२॥ जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्न ज्ञानी जनोनुभवति स्वयमुल्लसंत । मशानिनो निरवधिप्रविजंभितोयं मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटोति ॥४३॥ नानट्यतां तथापिअस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमानटति पुद्गल एव नान्यः । रागादिपुद्गल विकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ॥४४॥ इत्थं जानककपकलनापाटनं नायित्वा जीवाप्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया । ये-प्रथमा बह० । इमानि-प्रथमा बहु० । गुणस्थानानि-प्रथमा बहू । तानिप्रथमा बहुः । कथं-अव्यय । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । जीवा:-प्रथमा बहु । यानि-प्रथमा प्रब ज्ञाता द्रव्यकी महिमा बताकर प्रथम अधिकारको पूर्ण करते हैं । उसका कलश रूप काव्य कहते हैं-इत्यं इत्यादि । अर्थ—इस प्रकार ज्ञानरूप पारेको चलानेके बारम्बार प्रभ्यासको नचाकर जीव और मजीव दोनों स्पष्ट रूपसे जब तक पृथक् न हुए तब तक यह ज्ञाता द्रव्य प्रात्मा, प्रकट विकास रूप हुई प्रकट चैतन्यमात्र शक्तिसे विश्वको व्यास करके अपने आप वेगके अतिशयसे प्रकाशमान हो गया। इस प्रकार जीव और अजीव दोनों पृथक होकर निकल गये अर्थात् रंगभूमिसे बाहर हो गये। भावार्थ-जीब अजीब दोनोंका अनादिकालीन संयोग है सो प्रशानसे दोनों एक दीखते हैं। जब साधकको लक्षणभेद ज्ञात होता है तब भेदज्ञानके अभ्याससे सम्यग्दृष्टि होने के बाद जब तक केवलज्ञान उत्पत्र नहीं होता, तब तक तो सर्वज्ञके भागमसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान से समस्त वस्तुप्रोंका संक्षेप तथा विस्तारसे परोक्ष ज्ञान होता है, उस ज्ञानस्वरूप मात्माका जो भानुभव होता है, वही इसका प्रकट होता है । और जब घातिया कोंक नाशसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है, तब सब वस्तुओंको साक्षात् प्रत्यक्ष जानता है । ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रात्माका साक्षात अनुभव करता है । वही इसका सर्वतः प्रकट होना है । यही तो जीव अजीवके पृथक होनेकी रीति है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि वादर, पर्याप्त प्रादि देहको संज्ञावोंको जीवकी संज्ञायें आगममें व्यवहारसे बताई गई । निश्चयसे ये सब कुछ भी जीवके नहीं हैं। इस विषयमें यह तो जल्दी समझमें भा जाता है कि वर्ण, रस, गंध मादिक पुद्गल के ही हैं जीवके नहीं, किन्तु यह समझ सुगम नहीं हो पाती कि जीवके विभावपरिणमन रागादिक भाव व संयमस्थान गुणस्थान प्रादिक भाव भी पोद्गलिक हैं । सो यहां इसी विषयको स्पष्ट किया गया है। तथ्यप्रकाश--(१) प्रत्येक गुणस्पान कर्मप्रकृतिविपाकका निमित्त पाकर होते हैं । (२) जो-जो गुणस्थानके काम हैं, ऐसे ही कर्मप्रकृतियोंके अनुभाग हैं, यह तथ्य तब समझमें भाता है जब प्रत्येक गुणस्थानोंमें जो प्रात्मविकासको कमी है उसपर ध्यान किया जाये।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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