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________________ १४० समयसार स्थान विशुद्धिस्थान संयम लब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धं । तहि को जीव इति वेत् । श्रनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटं । जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकच कायते ॥४१॥ वर्णाः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्त्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः । इत्यालोच्य विवेचकः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा । व्यक्तं व्यंजित जीवतत्त्वमवलं यत् इदम्, गुणस्थान, तत्, कथं, जीव, यत्, नित्यं, अचेतन, उक्त मूलधातु-मुह वैचित्ये, वर्ण वर्णने, सत्तायां, अचिती संज्ञाने । पदविधरण षष्ठी एकवचन । उदयात्-पंचमी एक० | तु अव्यय । वणितानि - सहिल है, इसलिये मूर्तिकपनेको ग्रहण करके लोक जीवके यथार्थस्वरूपको नहीं देख सकतें, क्योंकि इसमें प्रतिव्याप्ति दोष आता है । वर्णादिकसे रागादिका भी ग्रहण होता, सो यदि रागादिको जीवका लक्षण कहा जाय तो उनकी व्याप्ति पुद्गलसे ही है, जीबको सब प्रव स्थाश्रमें रागादिककी व्याप्ति नहीं, इसलिये श्रव्याप्ति दोष आता है । इस प्रकार भेदज्ञानी पुरुषोंने परीक्षा कर प्रतिमाप्ति, प्रयादिदोषरहित वेतन ही जोवका लक्षण कहा है। वही ठीक है । उसीने जीवका यथार्थस्वरूप प्रकट किया है । और वह जीब कभी चलाचल नहीं है, सदा मौजूद है । इसलिये जगत् इसी लक्षणको अवलम्बन करे, इससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है । I ऐसे लक्षण से जीव तो प्रकट है तो भी अज्ञानी लोकोंको इसका अज्ञान किस तरह रहता है ? उसको प्राचार्य प्राश्चर्य तथा खेदसहित कहते हैं--जीवाद इत्यादि । श्रर्थ - इस प्रकार पूर्वकथित लक्षण के कारण जीवसे अजीव भिन्न हैं । ज्ञानी जन उसे अपने आप प्रकट उदय हुआ अनुभव करते हैं तो भी अज्ञानी जनोंके यह अमर्यादित मोह (अज्ञान) प्रकट फैलता हुआ कैसे प्रत्यन्त नृत्य करता है ? इसका हमको बड़ा अचम्भा है तथा खेद है । अब काव्य द्वारा कहते हैं कि मोह नृत्य करता है तो करे तो भी यह जीव एसा हैअस्मिन् इत्यादि । श्रथं -- इस अनादिकालीन बड़े प्रविवेकरूप नृत्य में वर्णादिमान पुद्गल ही नृत्य करता है. धन्य कोई नहीं है (प्रविवेकनाट्यमें पुद्गल हो अनेक प्रकार दीखता है, जीव तो अनेक प्रकार नहीं है) और यह जीव, रामादिक पुद्गल विकारोंसे विलक्षण शुद्ध चैतन्यस्थायुमय मूर्ति है । भावार्थ-- रागादि चैतन्यविकारको देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही हैं, क्योंकि यदि ये चैतन्यक) सब अवस्थाश्रोंमें व्याप्त होकर रहें, तब तो ये चैतन्यके कहे जायेंगे, सो ऐसा नहीं है, मोक्षअवस्था में इनका प्रभाव है। तथा इनका अनुभव भी श्राकुलतामय दुःखरूप है । चैतन्यका अनुभव निराकुल है, सो चैतन्य हो जीवका स्वभाव जानना |
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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