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________________ १२ समयसार निष्यंतः समस्त विरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमाद्यंत प्रकारान्तरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः । एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति एकवचन । तेन तृतीया एकवचन । विसं बन्धकथा -- कर्ताांकारक प्रथमा एकवचन | एकत्वे सप्तमी वादित प्रथमा एकवचन कर्तृ विशेषण । भवति क्रिया । अब यह द्वैविध्य बाधित किया जाता है अर्थात् समयको द्विविधता ठीक नहीं है, क्योंकि वह बाधासहित है | वास्तव में समयका एकत्व होना हो प्रयोजनीय है । समयके एकल्ब से ही यह जीव शोभा पा सकता है [ एकत्वनिश्चयगतः ] एकत्वके निश्चयको प्राप्त [ समय: ] समय [ सर्वत्रलोके] सब लोकमें [सुंदरः ] सुंदर है [तेन ] इसलिए [ एकत्वे ] एकत्वमें [बंधकथा ] दूसरेके साथ बंधकी कथा [विसम्बादिनी] विसम्वाद कराने वाली | भवति ] है । तात्पर्य - बन्धनमें संकट हैं, सहजशुद्ध प्रन्तस्तत्त्वमें पवित्रता व शान्ति है । टीकार्थ - - यहां समय शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि समय शब्दका अक्षरार्थं ऐसा है कि 'समय' अर्थात् एकीभाव से अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त हुआ जो परिणमन करे, वह समय है । इसलिए सब ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीवद्रव्य स्वरूप लोक में जो कुछ पदार्थ हैं, वे सभी यद्यपि अपने द्रव्यमें अंतमग्न हुए अपने अनन्त धर्मोका स्पर्श करते हैं तो भी परस्पर में एक दूसरेका स्पर्श नहीं करते और प्रत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाहरूप स्थित हैं तो भी सदाकाल निश्चयसे अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते तथा समस्त विरुद्ध कार्य और अविरुद्ध कार्यमें हेतुपनासे सदा विश्वका उपकार करते हैं, परन्तु निश्चयसे एकत्वके निश्चयको प्राप्त होनेसे ही सुन्दरता पाते हैं, क्योंकि जो अन्य प्रकार हो जायें तो संकर व्यतिकर आदि सभी दोष उसमें आा जावें । इस तरह सब पदार्थोका भिन्न भिन्न एकत्व सिद्ध होनेपर जीव नामक समयको बंधको कथासे विसंवादकी श्रापत्ति होती है । क्योंकि बंधकथाका मूल पुद्गल कर्मके प्रदेशोंमें स्थित होना जिसका मूल है, ऐसी परसमयतासे मंदा हुई परसमय स्वसमयरूप द्विविधता जीवके श्राती है । अतः समयका एकत्व होना ही मुसिद्ध होता है । भावार्थ - - निश्चय से सब पदार्थ अपने अपने स्वभाव में ठहरते हुए शोभा पाते हैं । परन्तु जीव नामक पदार्थकी अनादिकाल से पुद्गल कर्मके साथ बंध अवस्था है, उससे इस जीव में विसंवाद खड़ा होता है, इसलिए शोभा नहीं पाता । श्रतः एकत्व होना ही अच्छा है, उसी से यह जीव शोभा पा सकता है । प्रसंगविवरण -- प्रनन्तरपूर्व की गाथा में स्वसमय और परसमय ऐसे दो प्रकार बताये गये हैं, किन्तु यह ग्रात्मवस्तुका सहजभाव नहीं है । सहज चैतन्यस्वभाव के परिचयको सुगमता
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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