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पूर्व रंग जोबाह्वयस्य समयस्य बंधकथाया एवं विसंवादापत्तिः । कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वमूलपरसमयोत्यादितमेतस्य वैविध्य । अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते ।।३।। के लिये ही स्व समय परसमयका निर्देश किया गया है। पवित्रता व हित सहज चैतन्यस्वभाव के आश्रयसे ही है। अतः द्विविधताके उपयोग से हटकर निज सहज एकत्र मे पाना आवश्यक ही है सो इस एकत्वको बताने के लिये इस गाथाका अवतार हुना है।
तथ्यप्रकाश--१-एक ही क्षेत्रमें लोकमें अनेक पदार्थ हैं अथवा बद्ध पदार्थ हैं तो भी सब केवल अपने अपने स्वरूपमें ही तन्मय हैं, समस्त परसे भिन्न हैं। २-कोई भी पदार्थ किसी भी पररूपसे नहीं परिहारतः इसी कारण सबको अपनी अपनी सत्ता कायम है । ३-औपाधिक भावोंके भाव व अभावके कारण प्रारमवस्तुमें द्विविधता पाई है, किन्तु प्रात्मस्वरूपमें द्विविधता नहीं है 1
सिद्धान्त---१-निमित्तनैमित्तिक योग होनेपर भी वस्तुस्वातंत्र्य अमिट है । ९-यात्मस्वरूप सहज चैतन्यमात्र एकत्वको प्राप्त है।
दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकन्य (२४), स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८), परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६), २-परमशुद्धनिश्चयनय (४४) ।
प्रयोग--पर जीवोंको ओर दृष्टि दें तो इस तरहको परख बनायें कि सभी जीवों में एकेन्द्रिय आदि सब अवस्थावोंमें अन्तः सहजसिद्ध चैतन्यस्वरूप सतत प्रकाशमान है। अपने आपपर दृष्टि दें तो समस्त औपाधिक भावोंसे दूर रहने के स्वभाव वाले सहज चैतन्यस्वरूपमात्र अपनेको निरखें।
अब यह एकत्व असुलभतारूपसे बताया जाता है
{सर्वस्य अपि] सब ही लोकोंके [कामभोगबंधकथा] काम-भोग-विषयक बंधकी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता] सुनने में आ गई है, परिचयमें मा गई है और अनुभव में भी पायी हुई है इसलिए सुलभ है। [नवरि] किन्तु केवल [विभक्तस्य] पर व परभावसे भिन्न [एकत्वस्य उपलभः] अात्माके एकत्वका लाभ, उसको कभी न सुना, न परिचयमें आया और न अनुभवमें पाया इसलिए [न सुलभः] मुलभ नहीं है ।
तात्पर्य-प्रात्माका हितमय एकत्वस्वरूप ही सुना जावे, परिचित किया जावे अनुभवा जावे ताकि यह एकत्व मूलभ हो जाये ।
टीकार्थ---- यद्यपि इस समस्त जीवलोकको कामभोगविषयक कथा एकत्वके विरुद्ध होनेसे अत्यन्त दिसम्बाद करने वाली है...अात्माका अत्यंत बुरा करने वाली है, तो भी वह अनन्तबार पहले सुनने में पाई है, अनन्तबार परिचय में पाई है और अनन्त बार अनुभव में भी