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________________ २४ समयसार तथतदसुलभन्वेन विभाव्यते मुदपरिचिदाणुभूदा सब्बस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभी गवरि ण सुलहो विहत्तस्म ॥४॥ जानी सुनी अनुभबी, जीवोंने कामभोगबंधकथा । इससे विविक्त यह निज, एक स्वभायी न ज्ञात हुमा ॥४॥ श्रुतपरिचितानुभूना मर्वस्यापि कामभोगबंधकथा। एकत्वस्योपलंभः नवरि न सुलभो बिभक्तस्य ॥४॥ इह सकलस्यापि जीतला संसाचोड निमोनियात्रारतद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावतः समुपक्रांतभ्रांतेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेग गोरिव वाह्यमानस्य प्रसभोज्ज भिततृष्णातकत्वेन व्यक्तांतथिस्योत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनंतशः श्रुतपूर्वानंतशः परिचितपूर्वानंतशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वे प्रकृतिशब्द----श्रुता, परिचिता, अनुभूता, सर्व, अपि, काम, भोग बन्ध, कथा, एकत्द, उपलम्भ, नबरि, न, गुलभ, विभक्त । मुलधातु---श्रु श्रवाणे, चित् चेतने, भू सत्तायां, कमि कामनायां, भुज भोगे, हुन्नभप प्राप्तौ । पदविवरण- श्रुतपरिचितानुभूता-प्रथमा एकवचन, स्त्रीलिङ्ग । सर्वस्य-षष्ठी एक आ चुकी है । यह जोवलोक संसाररूपी चक्रके मध्य में स्थित है, जो निरन्तर अनन्त बार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव व भावरूप परावर्तन करनेसे भ्रमण करता रहता है, समस्त लोकको एकछत्र राज्य से वश करने वाले बलवान मोहरूपी पिशाचसे बैलकी भांति जोता जाता है, वेग से बढ़ी हुई तृष्णारूपी रोगके संतापसे जिसके अन्तरंगमें क्षोभ और पीड़ा हुई है, मृगको तृष्णा के समान भ्रान्त-संतप्त होकर इन्द्रियोंके विषयोंकी ओर दौड़ता है । इतना ही नहीं, परस्पर प्राचार्यत्व भी करता है अर्थात दूसरेको भी कहकर अंगीकार कराता है। इसलिए काम-भोग को कथा तो सबको सुलभ है। परंतु निर्मल भेदविज्ञान रूपी प्रकाशसे स्पष्ट दिखाई देने वाला भिन्न यात्माका जो एकत्व है, वह यद्यपि सदा प्रकट रूपसे अंतरंगमें प्रकाशमान है, तो भी वह कपायोंके साथ एकरूप सरीखा हो रहा है, इसलिए उसका अत्यंत तिरोभाव हो रहा है --- आच्छादित है। इस कारण अपनेमें अनात्मज्ञता होनेसे, न अपनेको स्वयं भी जाना और दूसरे अात्माके जानने वालोंको संगति सेवा भी नहीं की, इसलिए वह एकत्व न कभी सुनने में माया, न परिचयमें पाया और न कभी अनुभव में ही आया। इस कारण भिन्न आत्माके एकत्वकी सुलभता नहीं है। भावार्थ- इस लोकमें सभी जीव संसाररूप चक्रपर चढ़े पांच परावर्तनरूप भ्रमण करते हैं । वहाँपर मोहक के उदयरूप पिशाचसे जोते जाते हैं, इसो कारणसे विषयोंकी तृष्णा रूप दाहसे पीड़ित होते हैं । उसमें भी उस दाहकी शान्तिका उपाय इन्द्रियोंके रूपादि विषयों
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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