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________________ समयसार करोति दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मक लेष्टानुरूप काम गले में कद्रव्यान तोडनन्यत्वे | सति तन्मयश्च भवति तत: परिणामपरिणामिभावेन तव कर्तृकर्मभोवतृभोग्यत्वनिश्चयः । । तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मक चेष्टानुरूपकर्मफलं भुक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोनत्यत्वे सति तन्मयश्च भवति ततः परिणामपरि. गामिभावेन तव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्वयः ।। ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः भुजदि भुंक्ते–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । ववहारस्स ब्यवहारस्य-षष्ठी एक० । वत्तव्वं वरुव्यंप्रथमा एकवचन कृदन्त । दरिसणं दर्शन-प्रथमा एक० । समासेण समासेन-तृतीया एक० । सुशु शृणुनिश्चय है। ___ अब इसी अर्थको श्लोकमें कहते हैं-ननु इत्यादि । अर्थ---वास्तवमें वतुका परिणाम ही निश्चब से कर्म है, वह परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी द्रव्यका ही होता है, पन्यका नहीं होता । कर्म कर्ताके बिना नहीं होता, तथा वस्तुको एक अवस्थारूप कूटस्थ स्थिति नहीं होती, इस कारण बस्तु ही स्वयं अपने परिणामरूप कर्मका कर्ता है। भावार्थ- प्रत्येक वस्तु . स्वयं ही स्वयंके परिणामको स्वयंकी परिणतिसे करता है यह निश्चयनयका सिद्धान्त है। ___ अब इसी अर्थका समर्थन कलशरूप काव्यमें करते हैं. बहिर्मुठति इत्यादि । अर्थयद्यपि स्वयं प्रकाशरूप अनंतशक्तिमान वस्तु बाहर लोटती है तो भी अन्यवस्तु अन्यवस्तुमें प्रवेश नहीं करती है । क्योंकि सभी वस्तु अपने-अपने स्वभावमें नियत हैं ऐसा निीत हुमा हैं। ऐसा होनेपर भी अहो, यह जीव अपने स्वभावसे चलायमान होकर प्राकुलित तथा मोही। हमा क्लेशरूप क्यों होता है ? भावार्थ-वस्तुस्वभाव नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तुमें कोई । अन्य वस्तु नहीं मिलती फिर तो यह बड़ा अज्ञान है कि यह प्राणी अपने स्वभावसे चलायमान | होकर ब्याकुल (क्लेशारूप) हो जाता है। प्रब फिर इसी अर्थको श्लोकमें दृढ़ करते हैं-वस्तु इत्यादि । अर्थ--इस लोकमें। एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं है, इस कारण वस्तु वस्तुरूप ही है। ऐसा होनेपर अन्यवस्तु बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकती । भावार्थ-वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है कि अन्य कोई वस्तु उसे बदल नहीं सकती, यदि ऐसा न माना जाय तो वस्तुका बस्तुपना ही न रहेगा। तब अन्यका अन्यने कुछ भी नहीं किया। जैसे चेतन वस्तुके एक क्षेत्रावगाहरूप पुद्गल रहते हैं तो भी चेतनको जड़ पुद्गल अपने रूप तो नहीं परिणमा सकते तब चेतनका कुछ भी नहीं किया, यह निश्चयनयका मत है, और निमित्तनैमित्तिक भावसे अन्य वस्तुके परिणाम होता है तो वह भी उस उपादानभूत वस्तुका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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