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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थिति. रिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ॥२११॥ बहिर्मुठति यद्यपि स्फुटदनंत शक्तिः स्वयं तथाआशार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० किया। णिच्छयस्स निश्चयस्य-षष्ठी एक० । वयणं वचनं परिणामकयं परिणामकृतं जं यत्-प्रथमा एकवचन । होइ भवति-व० अ० ए० । चिट्ठ घेण्टा-द्वि० एक० । कुबई ही है अन्यका कहना थ्यवहार है । अब यही अर्थ काव्यमें कहते हैं--यत्त इत्यादि । अर्थ---कोई वस्तु स्वयं परिणामी अन्य वस्तुका कुछ करती है ऐसा जो मत है वह मत व्यवहारनयको दृष्टि से ही है निश्चयसे तो एकका दूसरा कुछ है ही नहीं। भावार्थ-एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहा जाता कि अन्य द्रव्यने यह किया, निश्चयसे तो जो परिणाम हुप्रा वह अपना ही हुआ दूसरेने उसमें कुछ भी लाकर नहीं रक्खा, ऐसा जानना । प्रसंगविवरस---अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्को स्वपरिणमनरूप कर्तृत्वको सिद्ध करनेके लिये नित्यानित्यत्वकी व्यवस्था बताई गई थी। अब इस गाथासप्तको वास्तविक कर्तृ कर्मत्व प्रभेद दर्शाया गया है। . तथ्यप्रकाश-१-व्यवहारसे कर्ता कर्म भिन्न-भिन्न समझे जाते हैं, किन्तु निश्चयसे जो ही कर्ता है वही उसका कर्म है। २- व्यवहारसे अज्ञानी जीव स्वसंवेदनसे च्युत होता हुआ ज्ञानावरणादि कर्मोको करता है, किन्तु उनसे तन्मय नहीं होता। -- व्यवहारसे अज्ञानी जोव मन वचन कायके व्यापाररूप उपकरणोंके द्वारा कर्मोको करता है, किन्तु उन उपकरणों से तन्मय नहीं होता । ४-व्यवहारसे अज्ञानी जीव कर्मोको करनेके लिये योगव्यापाररूप उपकरणोंको ग्रहण करता है, किन्तु उनसे तन्मय नहीं होता। ५-जीब तो कर्म व योगव्यापारोंसे भिन्न टोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप है, प्रतः कर्म व योग व्यापारोंसे कभी भी तन्मय नहीं होता। ६- व्यवहारसे प्रज्ञानी जीव शुद्धात्मभावनोत्थ सहजानन्दको न पाता हुप्रा शुभाशुभ कर्मफलोंको भोगता है, किन्तु उनसे तन्मय नहीं होता । ७- वास्तवमें अज्ञानी जीव शुद्धात्मस्वरूपको प्रतीतिके प्रभावमें अपने समुचित उपादानरूपसे मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मको करता है वह उस समय उस भावकमसे अनन्य है । ८- वास्तव में अज्ञानी जीव निश्चयरत्नप्रयके प्रभावमें सुखदुःखादिके भोगनेके समय हर्षविषादरूप चेष्टाको करता हुमा दुःखी होता है वह हर्षविषादचेष्टासे अशुद्धोपादानरूपसे मनन्य है । ६- अज्ञानी जीव स्वसहजात्मज्ञानसे च्युत होकर व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मको करता है व भोगता है । १०- वास्तवमें अज्ञानी जीव कर्म. फलको प्रात्मरूप मानता मा अज्ञानरूप ज्ञानपरिलमनसे परिणमता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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