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________________ ७८. उपाधिनिरपैम श द्रष्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे संसारी जीव सिद्ध सदमा पदमा है का प्रतिपादन) ७६. उत्पावध्ययगौणसत्ताग्राहक श सवध्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (औसे ध्रौव्यत्बकी मुख्यतामें द्रव्यके नित्यत्वका प्रतिपादन ८०. भंवकरुपना-निरपेक्ष शनच्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (जैस निजगुणपर्यायसे अभिन्न द्रव्य है, आदिका प्रतिपादन ८१. उत्पादव्ययसापेक्ष अश व द्रव्यायिक प्रतिपादक व्यवहार (प्रत्येक द्रव्य ध्रुव होकर भी उत्पाद यादवाला है आदि कथन) १२. भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (आत्माके ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण हैं आदि कथन) ८३. अन्वयद्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (द्रव्य सर्वव अपने गृणपर्यायों में व्यापक रहता है आदि कथा) ५६. स्वव्यादिनाक द्रवाFिirs : (ो जीव स्बद्रत्यक्षेत्रकालभावसे है आदि कथन) ५. परतण्यादिग्राहक अध्यायिक प्रतिपादक यवहार में जीव पर प्रत्यक्षेत्रकालभावसे नहीं है आदि वायन । ६. परममावग्राहक द्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे आत्मा सहज ज्ञायकस्वभाव है आदि कथन ७. अशवस्यूल जसत्र प्रतिपादक व्यवहार (जैसे नर "नारक" स्ध आदि अगले द्रव्य व्यञ्जन पयायोंका कथन। ८८, शुद्धस्थूल सूक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादक व्यवहार (जसे सिद्धयर्याय, एक अणु, धस्तिकाय कालाण आदि शुद्धद्रव्य व्यञ्जन पर्यायका कथन) ८६. अशुखसूक्ष्म ऋजुसत्र प्रतिपादक व्यवहार (जैसे क्रोध, मान आदि विभाव गुणाध्याजन पायाका कथन १०. शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसत्र प्रतिपादक व्यवहार (जसे केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि विभावगुणव्य-जन पर्यापोंका कथन) ११. अनादिनित्यपर्यायाथिक प्रतिपादक व्यवहार (मेह, अकृत्रिम त्यानय नित्य हैं आदि कचन) १२. साविनित्यपर्यायाथिफ प्रतिपादक व्यवहार (जैसे सिद्धपर्याय नित्य है आदि सद्ध होकर सदा रहनेवाली पर्यायका कथन) १३. सत्तागीणोत्पादव्यपग्राहक अशुद्धपर्यायायिक प्रतिपावक ध्यबहार (जैसे समय समय में पर्याय विनश्वर है आदि कथन) १४. सत्तासापेक्ष नित्य अशुअपर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे समय समयमें यात्मक पनि है आदि कथन) १५. उपाधिसापेक्ष नित्य अशुसपर्यायाधिक प्रसिपायक व्यवहार (जैसे संसारिवोंकी सिद्धपर्यायमरण गद्धार्यानों का कथन) १६. उपाधिसापेक्ष नित्य अशुढपर्यायाधिक प्रतिपावक व्यवहार (जैसे संसारी जीवोके उत्पति मरण हैं आदि कथन) १७. स्वाजात्यसभूत व्यवहार (जैसे परमाणु बहुप्रदेशी है, जीव रागी आदि कथन) , २८. विजात्यसद्भूत व्यवहार (जैसे मतिज्ञान मूर्त है, इण्यमान मनुष्य, पशु जीव है आदि कथन ) ६६. स्वजातिविजात्यसरभूत व्यवहार (जैसे जेय जीव और अजी व में ज्ञान जाता है आदि कथन १००. शयनयपर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार (ऋजसवनयके विषयको निगादिव्यभिचार दूर करके योग्य नसे कहना) १०१. समितनयपर्यायायिक प्रतिपावक व्यवहार (शब्दन यसे निश्चित शब्दस वाच्य अनेक पदार्थोमसे एक अदपदार्थका १०२. एवंभूतनयपर्यायाधिक प्रतिपादक उपवहार (सपभिरूढस निश्चित पदार्थको उसी क्रिया परिणत होनेपर ही कत्ता ) उपचार (प्रारोपक व्यवहार) १०३. उपाधिज उपचरितस्वभावव्यबहार (जैसे जीध के गूर्तत्व व अचेतनत्वका कथन) १०४. उपाधिज उम्परित प्रतिफलनव्यवहार (जैसे क्रोधकमके विपाकके प्रतिफलन को शोधकर्म कहना। १०५. स्वाभाविक उपचरितस्वभावष्यवहार (जैसे प्रभु समस्त पर पदार्थोके भी जाता हैं आदि कथन) १०५A. अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (जमें जीव घट पटकादि पर पदार्थ का ज्ञाता आदिधन) १०६. द्रष्ये द्रव्योपचारक (एकजातितश्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक) असद्भूतव्यवहार (अस शरीर को नीच जना
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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