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समथसार यानि । प्रनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः ।
एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयाम्नुःस्तोत्रं व्यवहारतोस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः । स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे
नातस्तीर्थंकरस्तवोत्तरवलादेकत्वमात्मांगयोः ॥२७॥ इति परिचिततत्त्वात्मकायकतायां नयविभजनयत्यात्यंतमच्छादितायां ।
अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ।।२८।। ।।३३॥ सत्तायां, साध संसिद्धौ, भण-शब्दार्थ: । पदविवरण--- जितमोहस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । यदा-अव्यय । क्षीणः-प्रथमा एक० । मोहः-प्रथमा एक० । साधो:-षष्ठी. एक० । तदा-अव्यय । खलु-अव्यय । क्षीणमोहःप्रथमा एक० । भण्यते–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० भादकर्मलिङ । सः-प्रथमा एक कर्मवाच्यमें कर्म।। निश्चयविद्भिः-तृतीया बहुवचन कर्मवाच्य में कर्ता ॥३३।। उच्छदित किये जानेपर निजरसके वेग द्वारा खेंचा हुअा एकस्वरूप होकर वह ज्ञान ययार्थरूप । में किस पुरुषके प्रकट नहीं होता अर्थात् अवश्य प्रगट होता ही है ।
भावार्थ-निश्चय व्यवहारनयके विभागसे प्रात्माका और परका अत्यन्त भेद जो | दिखलाया है, उसको जानकर ऐसा कौन पुरुष है कि जिसके भेदज्ञान नहीं होगा ? क्योंकि ज्ञान अपने स्वरससे आप अपना स्वरूप जानता है । इस प्रकार मप्रतिबुद्धने जो ऐसा कहा था कि हमें तो यह निश्चय है कि जो देह है वही प्रात्मा है, उसका निराकरण (समाधान) किया।
प्रसंगविवरण– अनन्तरपूर्व गाथामें निश्चयस्तुतिके प्रकरणमें भाव्यभावकसकर दोष दूर करने वाली द्वितीय निश्चयस्तुति की गई थी अब भाव्यभावकभावके अभावसे होने वाले क्षीरगमोहत्वकी उत्कृष्टता बताने वाली तृतीय निश्चयस्तुति की जा रही है।
तथ्यप्रकाश-१-परमात्मपदके लाभके लिये अनिवारित ४ पौरुषोंका इस निश्चय स्तुतिके प्रकरणमें वर्णन हुअा है- (१) जितेन्द्रिय होना, (२) मोहका तिरस्कार होना, (३) जितमोह होना और (४) क्षीणमोह होना ! २–यहाँ क्षीणमोह होनेका उपाय स्वभावभावकी निरन्तर हढ़ भावना होना बताया गया है ।। ३–जानमें प्रात्मा व देहकी एकता पूर्णतया नष्ट होनेपर ज्ञान मात्र जाननरूपसे बर्तता हुमा प्रकट व प्रगत होता ही है ।
सिद्धान्त—(१) स्वभावभावको भावनाका निमित्त पाकर भावक मोहकर्म कर्मत्वरहित हो जाता है । (.) आत्मा व देहादि परभाव में एकत्वबुद्धिके पूर्णतया नष्ट होनेपर जाननमात्र बर्तता हुआ ज्ञान विलसित होता है ।
दृष्टि- १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ ब)। २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध