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________________ पूर्व रंग प्रय भाज्यभावकभावाभावेन---- जिदमोहस्स दु जड्या खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तझ्या हु खीणमोहो भरणदि सो णिच्छयविदूहि ॥३३॥ मोहजयी साधुके, ज्यौं हि सकल मोह क्षीण हो जाता। त्यौं हि परमार्थ ज्ञायक, कहते हैं क्षीणमोह उन्हें ॥३३॥ जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः । तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ॥३३॥ इह खलु पूर्वप्रक्रांतेन विधानेनातमनो मोहं न्यस्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावानतिरिक्तात्म. संचेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टंभात्तत्संतानात्यंतविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णपरमात्मानमवासः क्षीणमोह जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः। एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमान मायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुरिणरसनस्पर्शन सूत्रारिण षोडश ध्यास्ये नामसंज्ञ-जिदमोह, हु, जइया, खीण, मोह, साहु, तइया, हु, खीणमोह, त, णिच्चयविदु। धातु संज्ञ-क्खि क्षये, हव सत्तायां तृतीयगणे, भण कथने, विद ज्ञाने। प्रकृतिशब्द -जितमोह, तु, यदा, क्षीण, मोह, साधु, तदा, खलु, क्षीणमोह, तत्, निश्चय वित् । मूलधातु-जि जये, क्षि क्षये, मुह-वैचित्ये, लिन' कहा जाता है। यहाँ भी जैसे पूर्व कहा था, उसी तरह मोह पदको पलटकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पशन-ये पद रखकर सोलह सूत्र पढ़ना और व्याख्यान करना तथा इसी प्रकार उपदेश कर अन्य भी विचारना । अब इस निश्चय व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-- 'एकत्वं' इत्यादि । अर्थ-शरीर और प्रात्माका व्यवहारनयसे एकत्व है, किन्तु निश्चयनयने एकत्व नहीं है। इसी कारण शरीरके स्तवनसे प्रात्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुमा कहा जाता है, किन्तु निश्चयनयसे नहीं । निश्चयसे तो चैतन्यके स्तवनसे ही चैतन्यका स्सवन होता है । यह चैतन्यका स्तवन तो जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह कहनेसे होता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुना कि जो प्रज्ञानीने तीर्थकरके स्तवनका प्रश्न किया था, उसका यह नयविभाग द्वारा उत्तर दिया । उसके बलसे प्रात्मा और शरीरका एकत्व निश्चयसे नहीं है। अब फिर इसी अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है, ऐसा पर्थरूप काव्य कहते हैं--'इति परिचित' इत्यादि । अर्थ-इस तरह जिसने वस्तुके पार्थस्वरूपका परिचय किया __ है, ऐसे मुनिजनोंके द्वारा प्रात्मा और शरीरके एकत्वके नयविभागकी युक्ति द्वारा अत्यन्त
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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